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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1329]
- स्थानांगसूत्र सटीक 4A वास्तविक पण्डित तो वही है, जो पठन-पाठनादि के अनुसार आचरण करता है। 345. कषाय कृशता
इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे गुरु। न चेयं ते पसंसामो, किसं साहु सरीरगं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1349]
- निशीथ भाष्य 3758 ... हम केवल साधक के, अनशन आदि से कृश हुए शरीर के प्रशंसक नहीं हैं, वस्तुत: तो इन्द्रियाँ (वासना), कषाय और अहंकार को ही कृश करना चाहिए। 346. कार्य-कुशलता . जो जत्थ होई कुसलो, सो उन हावेइ तं सयं बलम्मि।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1353]
- व्यवहारभाष्य 10/508 जो जिस कार्य में कुशल है, उसे शक्ति रहते हुए वह कार्य करना ही चाहिए। 347. साधनहीन असमर्थ उवकरणेहि विहूणो, जहवा पुरिसो न साहए कज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1356]
- व्यवहारभाष्य 10/540 साधनहीन व्यक्ति अभीष्ट कार्य को नहीं कर पाता है । 348. पाप-मिथ्या
जं जं मणेण बद्धं, जं जं वायाए भासिअं पावं । काएण य जं च कयं, मिच्छा मे दुक्कडं तस्स ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1358] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 149