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- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 93 किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुत: अपनी ही हत्या है और अन्य जीव की दया अपनी ही दया है। 357. दर्शनभ्रष्ट, भ्रष्ट दसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362]
- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 66 . जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वस्तुत: वही भ्रष्ट है, पतित है; क्योंकि दर्शन से भ्रष्ट को मोक्ष प्राप्त नहीं होता। 358. चंचल मन
जह मक्कडओ खणमवि, मज्झत्थो अत्थिउंन सक्केइ। तह खणमवि मज्झत्थो, विसएहि विणा न होइ मणो॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362]
- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 84 जैसे बंदर क्षणभर भी शांत होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन भी संकल्प-विकल्प से क्षणभर के लिए भी शांत नहीं होता। 359. अहिंसाधर्म, श्रेष्ठ धम्ममहिंसा समं नत्थि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362]
- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 91 अहिंसा के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। 360. अहिंसा परमो धर्म
तुंगं न मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि । जह तह जयम्मि जाणसु, धम्ममहिंसा समं नत्थि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 91
पारिजा प्रकोप [भाग 5 पर
जैसे बंदर
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 152