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________________ - जैसे विश्व में सुमेरू से ऊँचा और आकाश से विशाल कोई नहीं है वैसे ही सम्पूर्ण विश्व में अहिंसा से बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है। 361. भ्रष्ट कौन ? दसणभट्ठो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपब्भट्ठो । दंसणमणुपत्तस्स उ, परियडणं नत्थि संसारे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1362] , - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 65 चारित्र भ्रष्ट आत्मा भ्रष्ट नहीं है, किंतु दर्शन भ्रष्ट (श्रद्धा से गिरा हुआ) आत्मा ही वास्तव में भ्रष्ट है। सम्यादृष्टि जीव संसार में परिभ्रमण नहीं करता। 362. सत्यवादी-महिमा विस्ससणिज्जो माया व होइ पुज्जो गुरुव्व लोयस्स । सयणुव्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पिओ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1363] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 99 सत्यवादी पुरुष माता की तरह लोगों का विश्वासपात्र होता है, गुरु की तरह पूज्य होता है एवं स्वजन की तरह सभी को प्रिय लगता है। 363. हीरा छोड़ काँच को धावे अवगणिय जो मुक्खसुहं, कुणइ नियाणं असारसुहहेउं । सो कायमणि कएणं वेरुलियमणि पणासेइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1363 एवं 1364] - भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 138 जो मोक्ष सुख की अवगणना कर संसार के असार सुखों के लिए निदान करता है, वह काँच के टुकड़े के लिए वैडूर्यमणि को हाथ से खो बैठता है । 364. काम-भोगों की असारता सुटुवि मग्गिज्जंतो कत्थवि कयलीइ नत्थि जह सारो। इन्दियविसएसु तहा नत्थि सुहं सुट्ठ वि गविटुं॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (भाग 5 पृ. 1564] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 153
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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