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- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 114 जैसे कदली (केले) में खूब गवैषणा करने पर भी कहीं सार नहीं मिलता, वैसे ही तत्त्वज्ञों ने इन्द्रिय विषय-भोगों में खूब खोज करके भी कहीं सुख नहीं देखा हैं। 365. विषयासक्ति इंदिय विसयपसत्ता पडंति संसार सायरे जीवा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1364]
- भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक 141 इन्द्रिय विषयों में आसक्त जीव संसार ल्प समुद्र में डूब जाते हैं। 366. सात्त्विकी भक्ति दुर्लभा सात्त्विकी भक्तिः, शिवावधि सुखावहा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1365]
- धर्मसंग्रह2/134 मोक्ष पर्यन्त सुख को देनेवाली सात्त्विकी भक्ति दुर्लभ है । 367. शरीरंव्याधि मंदिरम्
विविहाऽऽहि वाहिगेहं गेहं पिव जज्जरं इमं देहं । . ___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1368)
- धर्मरत्न। अधि.14 गुण जर्जरित यह शरीर भी विविध आधि-व्याधियों का मंदिर है, घर
368. निम्नोत्कृष्ट तप-संयम पुव्वतवसंजमा हों-ति एसिणा पच्छिमो अगारस्स ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1380]
- निशीथभाष्य 3332 रागात्मा के तप-संयम निम्न कोटि के होते हैं, जबकि वीतराग के तप-संयम उत्कृष्टतम होते हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 154