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जो मनुष्य रस (स्वाद) में शीघ्र आसक्त होकर असंयमपूर्वक उसका सेवन करता है वह असमय में ही विनाश को प्राप्त हो जाता है । 79. रसना-वीतराग
जिब्भाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 491]
- उत्तराध्ययन 32/61 ... रसनेन्द्रिय का विषय रस है, जो रस राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में समदृष्टि रखता है, वही वीतराग होता है। 80. त्वचेन्द्रियासक्ति से विनाश
फासेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 492]
- उत्तराध्ययन 3246 जो मनोज्ञ स्पर्शनेन्द्रिय के भोगों में तीव्र आसक्ति रखता है वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त हो जाता है । 81. स्पर्श-वीतराग
कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु। तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 492]
- उत्तराध्ययन 3204 स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है । जो स्पर्श राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों में समदृष्टि रखता है, वही वीतराग कहलाता है।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 77