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82. रागात्मा
एविदियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो । ते चेव थोवंपि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेंति किंचि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 493]
- उत्तराध्ययन 32/100 मन एवं इन्द्रियों के विषय रागात्मा को ही दु:ख के हेतु होते हैं। वीतराग को तो वे किंचित् मात्र भी दु:खी नहीं कर सकते । 83. मोह-विकार
न कामभोगा समयं उवेंति, न यावि भोगा विगई उवेति । जे तप्पदोसी य परिग्गहीय, सो तेसु मोहा विगइं उवेति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 493)
एवं [भाग 6 पृ. 457]
- उत्तराध्ययन 32101 काम-भोग-शब्दादि विषय न तो स्वयं समता के कारण होते हैं और न विकृति के ही, किंतु जो उनमें राग या द्वेष करता है वह उनमें मोह से राग-द्वेष रूप विकार को उत्पन्न करता है । 84. इन्द्रियवशी आवज्जई इन्दियचोरवस्से ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 494]
- उत्तराध्ययन 32004 इन्द्रिय रूपी चोर के वशीभूत आत्मा संसार में ही भ्रमण करती है। 85. तृष्णा क्षीण.
एवं ससंकप्पविकप्पणासु संजायइ समयमुवट्ठियस्स। अत्थेय संकप्पयओ तओ से पहीयए कामगुणेसुतण्हा ।। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 78