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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 495]
- उत्तराध्ययन 32007 राग-द्वेष आदि दोषों के हेतु इन्द्रियों के विषय नहीं है बल्कि व्यक्ति के अपने ही राग-द्वेषादिरूप संकल्प-विकल्प ही कारणभूत है । यदि व्यक्ति के मनमें ऐसी विरक्ति या समता जागृत हो जाए तो उस समता से उसकी काम-भोगों की बढ़ी हुई तृष्णा (राग-द्वेषादि विकार) क्षीण हो जाती है । 86. बाल, अशरणभूत न सरणं बाला पंडितमाणिणो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 524]
- सूत्रकृतांग IMAN अपने आपको पंडित माननेवाले बालजन (अज्ञानी) शरणरहित होते हैं। 87. मुनि की तटस्थ यात्रा ____अणुक्कसे अप्पलीणे, मज्झेण मुणि जावते ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 525]
- सूत्रकृतांग IMAN उत्कर्ष रहित और अनासक्त मुनि मध्यस्थ (तटस्थ) भाव से यात्रा करे। 88. काम, खुजली नाति कंडूइ तं सेयं, अरूयस्सा वरज्झती ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 546]
- सूत्रकृतांग 1/3303 . घाव को अधिक खुजलाना ठीक नहीं है, क्योंकि खुजलाने से घाव अधिक फैलता है। 89. अजातशत्रु जेणऽण्णो ण विसज्झेज्जा तेण तं तं समायरे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 547]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 79