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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1076] योगबिन्दु 125
धर्म का प्रथम सोपान दान है और वह दरिद्रता का नाशक है । लोगों को प्रिय करनेवाला तथा कीर्ति आदि को बढ़ानेवाला है । 226. उपयुक्त दान
दत्तं यदुपकाराय, द्वयोरप्युपजायते ।
नातुरापथ्यतुल्यं तु तदेतद् विधिवन्मतम् ॥
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1076 ] योगबिन्दु 124
दिया हुआ दान, दाता और गृहीता दोनों के लिए उपकारजनक होता है, वह दान उपयुक्त दान है । दान बीमार को अपथ्य दिए जाने जैसा नहीं चाहिए अर्थात् किसी रुग्ण व्यक्ति को कोई सुस्वादु और पौष्टिक पदार्थ दे, जो उसके लिए अहितकर हो; तो वह सर्वथा अनुचित है । इसीप्रकार दिया गया दान लेनेवाले के लिए अहितकर न होकर हितकर होना चाहिए और उसीतरह देनेवाले के लिए भी ।
227. दान के योग्य पात्र
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व्रतस्थालिङ्गिन: पात्र -मपचारस्तु विशेषतः । स्वसिद्धान्ताविरोधेन वर्तन्ते ये सदैव हि ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1076 ] योगबिन्दु 122
व्रतपालक, साधु वेश में स्थित, सदा अपने सिद्धान्त के अविरुद्ध चलनेवाले जन दान के पात्र हैं, उनमें भी विशेषत: वे, जो अपने लिए भोजन नहीं बनाते ।
228. दानाधिकारी
दीनान्धकृपणा ये तु व्याधिग्रस्ता विशेषतः । निःस्वा: क्रियान्तराशक्ता एतद्वर्गो हि मीलकः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1076]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 119