________________
कार्य के दो रूप हैं-साध्य और असाध्य | बुद्धिमान् साध्य को साधने में ही प्रयत्न करें; चूँकि असाध्य को साधने में व्यर्थ का क्लेश ही होता है और कार्य भी सिद्ध नहीं हो पाता ।
223. आत्मदेव - पूजा
दयाम्भसा कृतस्नानः, संतोष शुभवस्त्रभृत् । विवेकतिलकभ्राजी, भावना पावनाशयः ॥ भक्ति श्रद्धान घुसणो, न्मिश्रपाटीरजद्रवैः । नवब्रह्माङ्गतोदेवं, शुद्धमात्मानमर्चय ॥
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1073] एवं [ भाग 2 पृ. 233]
ज्ञानसार 29/12
दयारूपी जल से स्नान कर, संतोष रूपी वस्त्र धारण कर, विवेक रूपी तिलक लगाकर, भक्ति और श्रद्धा रूपी - केशर तथा मिश्रित विलेपन तैयार कर, भावना से आशय को पवित्र बनाकर शुद्ध आत्म- देव के नव प्रकार के ब्रह्मचर्य रूपी नव अंगों की पूजन करें ।
224. विधिवत् दान
पात्रे दीनादि वर्गे च दानं विधिवदिष्यते । पोष्यवर्गाविरोधेन, न विरुद्धं स्वतश्च यत् ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1076] एवं [भाग 6 पृ. 2003] योगबिन्दु 121
आश्रित जनों को संतोष रहे. विरोध न हो तथा स्वतः विरुद्ध कर्म न हो; इसप्रकार सुपात्र, दीन व अनाथ आदि को देना; वह विधिवत् दान कहलाता है ।
225. दान, प्रथम सीढ़ी
धर्मस्याऽऽदिपदं दानं दानं दारिद्रय नाशनम् ।
1
जनप्रियकरं दानं दानं कीर्त्यादिवर्धनम् ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5118