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________________ 219. हृदय-घट पर विष-ढक्कन हिययमपावमकलुसं, जीहा विय कडुयभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुंभे विसपिधाणे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1033] - - स्थानांग 1A/A/360 [27] जिसका हृदय तो निष्पाप और निर्मल है, किंतु वाणी से कटु एवं कठोरभाषी है; वह मनुष्य मधु के घड़े पर विष के ढक्कन के समान है। 220. विषकुम्भ पयोमुखम् जं हिययं कलुसमयं, जीहा विय मधुरभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से विसकुंभे मधुपिधाणे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1033] - स्थानांग 4/44/360 [28 ] जिसका हृदय कलुषित और दंभयुक्त है, किन्तु वाणी से मीठा बोलता है; वह मनुष्य विष के पड़े पर मधु के ढक्कन के समान है। 221. जहर ही जहर जं हिययं कलुसमयं, जीहा विय कडुयभासिणी निच्चं । जम्मि पुरिसम्मि विज्जति, से विसकुंभे विसपिधाणे ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1033] - स्थानांग 4/AA/360 [29] जिसका हृदय भी कलुषित है और वाणी से भी सदा कटु बोलता है; वह पुरुष विष के घड़े पर विष के ढक्कन के समान है । 222. साध्य-असाध्य सज्झमसज्झं कज्जं, सझं, साहिज्जए न उ असज्झं । जो उ असज्झं साहइ, किलिस्सइ न तं च साहेइ ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1071] - निशीथभाष्य 4157 - बृहदावश्यक भाष्य 5279 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 117
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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