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________________ 68. स्वार्थवश जीवपीड़ा सद्दाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ गरुवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरु किलिटे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] - उत्तराध्ययन 32/40 मनोज्ञ शब्द की तृष्णा के वशीभूत अज्ञानी पुरुष अपने स्वार्थ के लिए चराचर जीवों की हिंसा करता है । उन्हें कई प्रकार से परितप्त और पीड़ित करता है। 69. शब्द-वीतराग सोयस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] - उत्तराध्ययन 32.35 श्रोत्र का विषय शब्द है । जो शब्द राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ कहा है । जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों में समान रहता है, वहीं वीतराग है। 70. सतृष्ण आश्रयहीन अदत्ताणि समाययंतो । सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] - उत्तराध्ययन 32/44 चोरी में प्रवृत्त और शब्दादि में अतृप्त हुई आत्मा दुःख पाती है तथा उसका कोई भी संरक्षक नहीं होता। 71. शब्दासक्त-अकाल मृत्यु सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं । अकालियं पावइ से विणासं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 490] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 74
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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