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309. मृत्यु की निर्दयता
जहेह सीहोव मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हू अंतकाले ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1278
- उत्तराध्ययन 13/22 सिंह जैसे मृग को पकड़कर ले जाता है, वैसे ही अन्तसमय में मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है। 310. अकेला दुःखभोक्ता
न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ,
न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । _ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1278]
- उत्तराध्ययन 13/23 ज्ञाति-सम्बन्धी, मित्र-वर्ग, पुत्र और बांधव कोई भी मनुष्य के दु:ख में भाग नहीं बँट सकते। 311. सर सूखे, पंछी उड़े !
उवेच्च भोगा पुरिसं चयंति,
दुमं जहा खीणफलं व पक्खी । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279)
- उत्तराध्ययन 13/31 जैसे वृक्ष के फल समाप्त हो जाने पर पक्षी उसे छोड़कर चले जाते हैं वैसे ही मनुष्य का पुण्य समाप्त हो जाने पर भोग-साधन उसे छोड़ देते हैं । 312. जरा जर, जर वण्ण जरा हरइ नरस्स रायं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1279]
- उत्तराध्ययन 1326 हे राजन् ! जरा (वृद्धावस्था) मनुष्य की सुन्दरता को समाप्त कर देती है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 140