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________________ 442. वही श्रमण असिप्पजीवी अगि, अमित्ते, जिइदिए सव्वओ विप्यमुक्के । अणुक्कसाई न हु अप्पभक्खी, चेच्चा गिहं एगं चरे स भिक्खू ॥ SA श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग पृ. 1571] उत्तराध्ययन 15 16 जो शिल्प - जीवी नहीं है, जिसके घर नहीं है, जिसके मित्र नहीं है, जो जितेन्द्रिय और सर्वप्रकार के परिग्रह से मुक्त है, जो अल्पकषायी है, जो निस्सार और वह भी अल्पभोजन करता है और जो घर का त्याग कर अकेला राग-द्वेष रहित होकर विचरण करता है; वही भिक्षु है । 443. सर्वभयमुक्त साधक ण भातियव्वं भयस्स वा, वाहिस्स वा रोगस्स वा । जराए वा मच्चुस्स वा एगस्स वा एवमादियस्स ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1590] , प्रश्नव्याकरण 2/7/25 साधक को देव मनुष्यादि भय से, कुष्ठादि व्याधि से, ज्वरादि रोगों से, बुढ़ापे से और तो क्या मृत्यु से या इसीतरह के अन्य किसी भी भय से नहीं डरना चाहिए । 444. भीरु, असमर्थ - सप्पुरिस निसेवियं च मग्गं भीतो न समत्थो अणुचरिउं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1590] प्रश्नव्याकरण 2/7/25 भयभीत व्यक्ति सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग का अनुसरण करने में समर्थ नहीं होता । 445. निर्भय रहो न भाइयव्वं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 172
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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