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भिक्षु उच्छृखल-असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करें। 437. पृथ्वीवत् क्षमाशील मुनि
पुढवि समे मुणी हवेज्जा। . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567]
- दशवैकालिक 1013 मुनि को पृथ्वी के समान क्षमाशील होना चाहिए। 438. धर्म में स्थिर धम्मे ठिओ ठावयई परं पि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567]
- दशवकालिक 10/20 स्वयं धर्म में स्थिर रहकर दूसरों को भी धर्म में स्थिर करना चाहिए। 439. आत्म-प्रशंसा से दूर अत्ताणं न समुक्कसे।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567]
- दशवकालिक 8/30 अपनी बढ़ाई मत करो। 440. धर्मध्यानरत भिक्षु धम्मज्झाणरए य जे, स भिक्खू ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1567]
- दशवकालिक 1019 जो धर्म-ध्यान में सतत रत रहता है, वही सच्चा भिक्षु है । 441. अनासक्त श्रमण जे कर्मिहचि न मुच्छिए स भिक्खू ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1568]
- उत्तराध्ययन 152 जो किसी भी वस्तु में मूर्छा भाव न रखे, वही सच्चा भिक्षु है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 171