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240. परिग्रह बुद्धि, दुःख-दूती
चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिज्झ किसामवि । अन्नं वा अणुजाणाति, एवं दुक्खाण मुच्चइ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191]
- सूत्रकृतांग 1402 जो व्यक्ति सजीव या निर्जीव, थोड़ी या अधिक वस्तु को परिग्रह बुद्धि से रखता है अथवा दूसरे को रखने की अनुज्ञा देता है; वह दु:ख से छुटकारा नहीं पाता। 241. ममत्त्व मति ममाती लुप्पती बाले ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191]
- सूत्रकृतांग 1ANA 'यह मेरा है, यह मेरा है' इस ममत्व बुद्धि के कारण ही मूर्ख लोग संसार में भटकते रहते हैं। 242. बंधन से मोक्ष की ओर बुज्झिज्ज तिउट्टेज्जा बंधणं परिजाणिया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191]
- सूत्रकृतांग 1AAM सर्वप्रथम बन्धन को समझो और समझने के बाद उसे तोड़ो । 243. हिंसा से वैर
सयं तिवायए पाणे, अदुवा अण्णेहिं घायए । हणन्तं वाऽणुजाणाइ, वेरं वड्ढेति अप्पणो ॥ - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191]
- सूत्रकृतांग 1AMB जो व्यक्ति स्वयं प्राणियों की हिंसा करता हैं दूसरों से करवाता है और करनेवालों का अनुमोदन करता है; वह संसार में अपने लिए वैर को ही बढ़ाता है।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सृक्ति-सुधारस • खण्ड-5 . 123