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________________ 244. वैर, स्वशत्रुता वेरं वड्ढेति अप्पणो। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1191] - सूत्रकृतांग 1AMB व्यक्ति अपने लिए वैर बढ़ाता है अर्थात् अपनी आत्मा के साथ शत्रुता बढ़ाता है। 245. अशरण अनुप्रेक्षा वित्तं सोयरिया चेव, सव्वमेतं न ताणए । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1192] - सूत्रकृतांग IANS धन-धान्य, स्वजन-कुटुम्ब आदि कोई भी जीवात्मा को इस संसार के परिभ्रमण से नहीं बचा सकते । 246. मानवमात्र एक एक्का मणुस्स जाई। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1257) - आचारांग नियुक्ति 16 समग्र मानव जाति एक है। 247. ब्रह्मचर्य, मूल बंभचेरं उत्तमतव नियम-णाण-दंसण चरित-सम्मत्त विणय मूलं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1259) - प्रश्नव्याकरण 28/27 ब्रह्मचर्य-उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। 248. ब्रह्मचर्यनाशः सर्वनाश जम्मिय भग्गम्मि होइ सहसा सव्व....गुण समूहं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्टु-5 • 124 -
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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