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________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 253 जो तृण के समान बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर सदा उदासीन रहते हैं, तीनों लोक उनके चरण-कमलों की सेवा में रहते हैं। 106. स्पृही की दृष्टि में: जगत् मूर्छाच्छन्नधियां सर्वं, जगदेव परिग्रहः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 2518 मूर्छा से आच्छादित बुद्धिवाले जीवों के लिए समस्त जगत् परिग्रह रूप हैं। 107. निस्पृही की दृष्टि में: जगत् मूर्च्छया रहितानां तुः जगदेवापरिग्रहः । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 25/8 मूर्छा विहीन (ममता रहित) नि:स्पृही पुरुषों के लिए तीनों लोकों का ऐश्वर्य भी अपरिग्रह रूप है। 108. परिग्रहत्यागः कर्मक्षय त्यक्ते परिग्रहे साधोः प्रयाति सकलं रजः । पालित्यागे क्षणादेव सरसः सलिलं यथा ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 556] - ज्ञानसार 25/5 जैसे पाल टूटते ही तालाब का सारा पानी क्षणभर में बह जाता है वैसे ही बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करते ही साधु के सारे पाप-कर्म क्षय हो जाते हैं। 109. श्रमण कौन ? अपरिग्गह संवुडे य समणे, आरंभ परिग्गहातो विरते । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 557] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 84
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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