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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 564-565-566]
- प्रश्नव्याकरण 210/29 संवृतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करें । 119. धर्माचरण
मणुन्नाऽमणुन्नसुब्भिदुब्भि-राग-दोसप्पणिहियप्पासाहू। मणवयण कायगुत्ते संवुडे पणिहि इंदिए चरेज्ज धम्मं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 564-566]
- प्रश्नव्याकरण 240/29 मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप शुभ-अशुभ शब्दों में राग-द्वेष वृत्ति का संवरण करनेवाला और मन-वचन-काया का गोपन करनेवाला मुनि संवृतेन्द्रिय होकर धर्म का आचरण करें । 120. दृष्टि-दमन
ण सक्का रूवमदटुं, चक्खू विसयमागतं । · रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 565]
- आचारांग 23/15/131 यह शक्य नहीं है कि आँखों के सामने आनेवाला अच्छा या बुरा रूप न देखा जाए, अत: रूप का नहीं, किन्तु रूप के प्रति जाग्रत होनेवाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। . 121. गंध-दमन
णो सक्का ण गंधमग्घाउं, णासा विसयमागतं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 565]
- आचारांग 2/315132 यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आई हुई सुगन्ध या दुर्गन्ध सूंघने में न आए, अत: गंध का नहीं; किंतु गंध के प्रति जगनेवाली रागद्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 87 ))