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________________ व्यावहारिक-अव्यावहारिक जे से पुरिसे देइ वि सन्नवेइ वि से पुरिसे ववहारी । जे से पुरिसे णो देति णो सन्नवेइ सेणं अववहारी ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 38] राजप्रश्नीय 185 जो व्यापारी ग्राहक को अभीष्ट वस्तु देता है और प्रीतिवचन से संतुष्ट भी करता है, वह व्यवहारी है। जो न देता है और न प्रीति वचन से संतुष्ट ही करता है; वह अव्यवहारी है । 9. 10. वन्दना जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा, तत्थेव वंदेज्जा णमंसेज्जा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 39-40] राजप्रश्नीय 191 जहाँ कहीं भी अपने धर्माचार्य को देखें, वहीं पर उन्हें वन्दना - - - नमस्कार करना चाहिए | 11. जीवन अरमणीय नहीं ! माणं तुमं पएसी ! पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 40] राजप्रश्नीय 194-199 हे राजन् ! तुम जीवन के पूर्वकाल में रमणीय होकर उत्तरकाल में - अरमणीय मत बन जाना । 12. साधक-चर्या साता गारवणि हुए, उवसंते णिहे चरे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 59] एवं [भाग 6 पृ. 1406] सूत्रकृतांग 1/8/18 साधक सुख-सुविधा की भावना से अनपेक्ष रहकर, उपशान्त एवं दंभरहित होकर विचरे । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड़-559
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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