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________________ 463. संसार व्यथित थीभि लोए पव्वहिते । - आचारांग 1/2/4/84 यह संसार स्त्रियों से पीड़ित है, व्यथित है । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] 464. शरीर, क्षणभङ्गुर भेरधम्मं संपेहा | यह शरीर क्षणभंगुर है, इसकी संप्रेक्षा करे । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] आचारांग 1/2/4/85 465. हिंसा - वर्जन नातिवातेज्ज कंचणं । किसी भी जीव की हिंसा मत करो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1608] आचारांग 1/2/4/85 466. वीर प्रशंसनीय ! - एस वीरे पसंसिते जेण णिव्विज्जति आदाणाए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1608] आचारांग 12/4/86 वही वीर प्रशंसनीय होता है जो संयमी जीवन से खिन्न नहीं होता । 467. साधक क्रुद्ध न हो ण मे देति ण कुप्पेज्जा । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 1608] आचारांग 1/2/4/86 'यह मुझे नहीं मिला', 'यह मुझे नहीं देता' - यह सोचकर साधक उसपर क्रुद्ध न हो । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-5 • 177
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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