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50. ब्रह्मचर्यरत
अदंसणं चेव अपत्थणंच, अचिंतणं चेव अकित्तणं च। इत्थी जणस्सारिय झाणजोग्गं,हियंसया बंभचेरेरयाणं॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 485]
- उत्तराध्ययन 32/15 वे साधक जो ब्रह्मचर्य की साधना में लीन हैं, उनके लिए स्त्रियों को 'राग दृष्टि से न देखना; न उनकी अभिलाषा करना, न तन में उनका चिन्तन करना और न ही उनकी प्रशंसा करना-ये सब सदा के लिए हितकर है। 51. ब्रह्मचारी-निवास
एमेव इत्थी निलयस्स मज्झे, न बंभचारिस्स खमो निवासो।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 485]
- उत्तराध्ययन 32/13 जिस घरमें स्त्री रहती हो, वहाँ ब्रह्मचारी का रहना उचित नहीं है। 52. जितेन्द्रिय न राग सत्तू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 485]
- उत्तराध्ययन 32/12 जिसप्रकार उत्तम जाति की औषधि रोग को दबा देती है या नष्ट कर देती है और पुन: उभरने नहीं देती, उसीप्रकार जितेन्द्रिय पुरुष के चित्त को राग-द्वेष रूपी कोई शत्रु सता नहीं सकता। 53. प्रकाम भोजन-वर्जन
जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारूओ नोवसमं उवेइ । एविदियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभचारिस्स हियाय कस्सई ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 485] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 69