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________________ - उत्तराध्ययन 32ml जैसे प्रचुर इंधनवाले वन में लगी हुई और प्रचण्ड पवन के झोकों से प्रेरित दावाग्नि शांत नहीं होती, वैसे ही प्रकामभोजी अर्थात् सरस एवं अधिक मात्रा में भोजन करनेवाले साधक की इन्द्रियाग्नि (कामाग्नि) शांत नहीं होती । अत: किसी भी ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कदापि श्रेयस्कर नहीं है। 54. काम, किंपाक जहा य किंपाग फला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा । ते खुद्दए जीविए पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 486] - उत्तराध्ययन 32/20 जैसे किंपाक फल रूप, रंग और रस की दृष्टि से प्रारंभ में देखने और खाने में तो अत्यन्त मधुर और मनोरम लगते हैं, किंतु बाद में जीवन के नाशक हैं; वैसे ही काम-भोग भी प्रारंभ में बड़े मीठे और मनोहर प्रतीत होते हैं; किन्तु विपाककाल (अन्तिम परिणाम) में अत्यन्त दु:खप्रद सिद्ध होते हैं। 55. एकान्त प्रशस्त विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 486] - उत्तराध्ययन 3246 मुनि के लिए एकान्तवास प्रशस्त होता है । 56. दुःख-मूल कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 486] - उत्तराध्ययन 3249 समग्र संसार में जो भी दु:ख हैं, वे सब कामासक्ति के कारण ही हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 70
SR No.002320
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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