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- ओघनियुक्ति 747 त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों का कथन है कि अनेकानेक जीवसमूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, बाह्य हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं । 131. ईर्यासमित साधक निष्पाप
उच्चालियम्मि पाए, ईरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरिज्जतं जोगमासज्जा । नय तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो विदेसिओ समए । अणवज्जो उपओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ॥ __- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 612]
- ओघनियुक्ति 748-749 कभी-कभार ईर्यासमित साधु के पैर के नीचे भी कीट-पतंगादि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं, परन्तु उक्त हिंसा के निमित्त से उस साधु को सिद्धान्त में सूक्ष्म भी कर्म-बन्ध नहीं बताया है; क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन उस हिंसा-व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पाप है। 132. प्रमत्त-अप्रमत्त
आया चेव अहिंसा, आया हिंसंति निच्छओ एसो । जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 612]
- ओघनिर्यक्ति 754 निश्चय दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा । जो प्रमत्त है, वह हिंसक है और जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक । 133. हिंसा-वृत्ति
जो य पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोगं पडुच्च जे सत्ता। वा वज्जंते नियमा, तेसिं सो हिंसओ होइ । जे वि न वावज्जती, नियमा तेसिं पि हिंसओ सोउ । सावज्जो उपओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 90