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378. काँटे से काँटा विषं विषस्य वह्वेश्च वह्निरेव यदौषधम् ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1480]
ज्ञानसार 22/1 यह कहावत सत्य है कि 'जहर की दवा जहर है' और 'अग्नि की दवा अग्नि ।' 379. भवभीरु मुनि
तैलपात्रधरो यद्वद्, राधावेधोद्यतो यथा ।। क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्, भवभीतस्तथा मुनिः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1480]
- ज्ञानसार 22/6 जैसे तेल से भरे हुए पात्र को उठाकर चलनेवाला और राधावेध को साधनेवाला अपनी क्रिया में एकाग्रचित्त होता है, वैसे ही भवभीरू मुनि अपनी चारित्र-क्रिया में एकाग्रचित्त होता है। 380. किल्बिषिक भावना माई अवणवाई, किदिवसिणं भावणं कुणइ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1513]
बृहदावश्यक भाष्य 1302 जो मायावी है और सत्पुरुषों की निंदा करता है; वह अपने लिए किल्बिषिक भावना (पापयोनि की स्थिति) पैदा करता है। 381. निष्काम साधना भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1515]
- सूत्रकृतांग 1/15/5 जिस साधक की अन्तरात्मा भावनायोग (निष्काम साधना) से शुद्ध है, वह जल में नौका के समान है अर्थात् वह संसार-सागर को तैर जाता है, उसमें डूबता नहीं है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 158