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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549]
- दशवैकालिक 7/56 प्रबुद्ध ऐसी भाषा बोले जो सभी के लिए हितकर और प्रियंकर हो। 414. सदोष भाषा-वर्जन
भासाए दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे य दुट्ठाए विवज्जए सया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1549]
- दशवकालिक 7/56 भाषा के गुण-दोषों को जानकर दोषपूर्ण भाषा सदा के लिए छोड़ देनी चाहिए। 415. भिक्षाचरी जिण सासणस्स मूलं भिक्खायरिया जिणेहि पन्नत्ता।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1560]
- धर्मरत्नप्रकरण 3 अधि. 7 लक्ष. जिनेश्वरों ने भिक्षाचरी को जिनशासन का मूल कहा है। . 416. भाव भिक्षु जो भिदेइ खुहं खलु, सो भिक्खू भावतो होइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1563]
- उत्तराध्ययन नियुक्ति 375 जो मन की भूख (तृष्णा) का भेदन करता है, वही भाव-भिक्षु है। 417. भिक्षु-लक्षण
खंती यमद्दऽज्जव, विमुत्तया तहअदीणयति तिक्खा। आवस्सग परिसुद्धी, य होंति, भिक्खुस्स लिंगाई॥ .
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1564]
- दशवैकालिक नियुक्ति 349 क्षमा, विनम्रता, सरलता, निर्लोभता, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक क्रियाओं की परिशुद्धि-ये सब भिक्षु के वास्तविक चिह्न हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 166