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454. समर्थ त्यागी, कर्मनिर्जरा
भोगी भोगे परिच्चयमाणे, महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1604]
- भगवती 7020 भोग-समर्थ होते हुए भी जो भोगों का परित्याग करता है, वह कर्मों की महान् निर्जरा करता है; उसे मोक्ष रूपी महाफल प्राप्त होता है। 455. धर्मोत्पन्न भोग भी अनर्थ
धर्मादपि भवन् भोगः प्रायोऽनर्थाय देहिनाम् । चन्दनादपि संभूतो, दहत्येव हुताशनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1604]
- योगदृष्टि समुच्चय 160 धर्म से भी उत्पन्न भोग प्राणियों के लिए प्राय: अनर्थकर ही होता है। जैसे चन्दन से भी उत्पन्न अग्नि जलाती ही है। 456. आशा-तृष्णा-त्याग आसं च छंदं च विगिंच धीरे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607]
- आचारांग12/4/43 हे धीरपुरुष ! तुम आशा-तृष्णा और स्वच्छंदता का त्याग करो। * 457. मृगतृष्णा जेण सिया, तेण णो सिया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 5 पृ. 1607] . - आचारांग 124/83
तुम जिन-वस्तुओं से सुख की आशा रखते हो, वस्तुत: वे सुख के कारण नहीं हैं। 458. संप्रेक्षा
संतिमरण संपेहाए ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-5 • 175 .