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योग और साधना
ऐसा करने से मना कर दिया, तथा साथ ही आने वाली सम्भावित मृत्यु के लिए अपनी तरफ से खाना पीना छोढ़कर उसे खुला आमन्त्रण और दे डाला । क्या कोई मृत्यु से भयभीत व्यक्ति ऐसा कर सकता है ? साधक के निर्वाण का उसको मृत्यु के समय ही पता चलता है। इसी प्रकार की मृत्यु को ही हम होश पूर्वक अपने आप से उसे स्वीकार को हुई मृत्यु कहते हैं।
इसलिये ध्यान रखने की बात यहां यही है कि, जब हम होश में मरते हैं तो हम स्वतः ही होशपूर्वक जन्म लेने के अधिकारी भी हो जाते हैं। क्योंकि जब हमारे होश को मृत्यु भी विचलित नहीं कर सको तब फिर जन्म लेने के समय हम बेहोश क्यों कर हो जावेगें। और जब हम अपना जन्म होश पूर्वक ही ले रहे हैं तब हम इस दुनियां में आते समय इस प्रकार के गर्भ का चुनाव क्यों करेगें जिसकी नियति हमें नरक के समान दुखों की ओर ले जावेगी। हम तो फिर इस प्रकार के गर्भ में उतरने के लिए कोशिश करेगें जो हमें हमारे मन के अनुरूप स्वार्गिक ऐश्वर्यता की ओर ले जाकर आनन्दित करे । इसीलिये ध्यान रखें यदि हमें होशपूर्वक जन्म इस दुनियाँ में लेना है तो होशपूर्वक मरना भी सीखना ही होगा। मृत्यु के स्तर का होश जगाने का एक मात्र साधन यदि हमारी भारतीय संस्कृति में है तो वह यही है जिसके अर्न्तगत भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिपुटी है । भक्ति के द्वारा हमें इस साधना के लिए आपेक्षित श्रद्धा तथा भावना की प्राप्ति होती है। ज्ञान के द्वारा हमें अपनी श्रद्धामय भावना के लिए दृढ़ता की प्राप्ति होती है और तब ही कर्म के द्वारा हम अपनी साधना में उतरने के लिए की जाने वाली तपस्या में पारंगत या सिद्ध होते हैं ।
मैंने पूर्व में लिखा है कि उस विराट मृत्यु से पहले हमें छोटी-छोटी और सहन शील मृत्युओं को स्वीकार करके अपनी क्षमताओं में वृद्धि करनी होती है । इस संसार में जिस बात से भी हमारे मानसिक या शारीरिक सुखों में व्यवधान आता है वहीं हमारी इन लघु मृत्युओं का कारण बनता है इसलिए ही हमारी हिन्दू संस्कृति के धुरन्धर चिन्तकों ने, मनीषियों ने, योगियों ने तथा आध्यात्म के शिक्षकों ने इस साधना पद्धति के प्रत्येक स्तर पर तपस्या करने के लिए ही इतने सोपान जोड़े हैं, जिनके बिना हम अपनी साधना के मूल तत्व से विमुख ही रहेगें। अथवा दूसरे शब्दों में जब हम आध्यात्मिक मंधना पद्धति के इन द्वारों से गुजरते हैं तभी हम अपनी जागृति का स्वयं अनुभव करके अपनी, प्रार्थना का उदय हुआ पाते हैं।
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