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योग और साधना
7. साधक को अपना शरीर स्वस्थ रखना ही चाहिये क्योंकि स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ चित्त का निमंत्रण कर सकता है। भले ही उसे अपने आपको स्वस्थ बनाने के लिए इस संसार में व्याप्त किसी भी चिकित्सा पद्धति को ही क्यों न अपनाना पड़े, वह चाहे आयुर्वेद हो, युनानी हो, होम्योपैथी हो, चीनी पद्धति एक्यूपक्चर हो, अंग्रेजी पद्धति ऐलोपंथी हो अथवा योगासनों के द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ रखने का तरीका हो कहने का तात्पर्य है साधक का शरीर सर्वथा रोग मुक्त होना चाहिये। 8. साधक को अपनी साधना किसी विशेष या शीघ्र फल की आकांक्षा से रहित होकर नियमित रूप से तथा निश्चित समय पर नित्य प्रति ही करनी चाहिये, इससे साधना अति शीघ्र ही अपनी पायदानों पर पहुँचती है । 9. असली एवं वास्तविक समाधि से पहले कई बार ऐसा लगता है जैसे कि उन्हें दूसरे-दूसरे लोकों के दर्शन हो रहे हैं या अद्भुत प्रकाश की किरणें दिखाई दे रही हैं या वह विभिन्न रंगीन दृश्यों में से होकर गुजर रहा है ये सभी स्थितियाँ साधारण साधक से तो उच्च हैं। लेकिन यह अवस्था उस चरम अवस्था से तो नीची ही है जिसमें साधक के सारे के सारे प्राण बड़ी तेजी के साथ खिंच कर तथा बड़े शोर के साथ उसके शरीर में से बाहर निकल जाते हैं । केवल उसी अवस्था में साधक को असली समाधि समझनी चाहिये, तथा बार-बार उस अवस्था की परख करके ही सन्तुष्ट होना चाहिये। 10. जिस समय प्राण इड़ा-पिघला में से निकलकर सुषमणा में आते हैं उस समय साधक को अपनी मृत्यु होने का भय व्याप्त हो सकता है क्योंकि उस समय उसकेप्राण ही तो इस स्थूल से बाहर निकलते हैं लेकिन धैर्य के साथ तथा दृढ़ता के साथ अपनी साधना में साधक को अपने इष्ट का स्मरण करके लगा रहना चाहिये सफलता अवश्य ही मिलेगी । इसलिए साधक अपनी साधना में किसी भी प्रकार के भय से भयग्रस्त न होवें ।
८ 30 जनवरी 1983 समाप्त
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