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साधकों के हितार्थ कुछ खास बातें
1. साधक का ध्येय हमेशा अपनी आत्मा को सिद्धियाँ रूपी विजातीय धूल से बचाते हुये अपनी साधना में साधनारत रहना चाहिये, अन्यथा साधक के अपने सीधे सरल पथ पर से हटकर पथ भ्रष्ट हो जाने की संभावनायें ज्यादा हो जाती हैं।
जिस प्रकार कोई राहगीर राजपथ से भटक कर साथ के जंगलों की हरियाली एवं प्रकृति की छटाओं में खोकर उधर मुड़ जाता है जिसके कारण से वह अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँच पाता है, ठीक इसी प्रकार साधक सिद्धियों के फेर में फँसकर अपने मार्ग से च्युत होकर आधा अधूरा ही रह जाता है ।
___भले ही वे सिद्धियाँ सात्विकी गुणों से ओत-प्रोत वृत्तियों वाली हों अथवा वे भले ही मानव मात्र के लिए मानव कल्याण वाली हों, क्योंकि उनके उपयोग के बाद उनके द्वारा फल प्राप्त हो जाने के कारण से साधक के मन में अहम् भाव पैदा हो ही जाता है जिसके कारण से साधक की साधना में व्यवधान आ जाता है ।
2. साधक को जहाँ तक हो सके अपने जीवन यापन के लिये इस प्रकार का व्यवसाय चुनना चाहिये या अपना जीवन यापन इस प्रकार से करना चाहिये । जिसके द्वारा मन शान्त एवं निर्मल बना रहे, उसे अपने व्यक्तिगत खर्चों, अपनी लतों पर तथा अपने अहम् पर संयम रखना चाहिये जिससे बेफिज़ल की बातों से साधक यथा सम्भव बचा रहे ।
3. अपने व्यवहार में झूठ बोलने वाले साधक जब वे उस संक्रामक काल के नजदीक होते हैं जिसमें वे अपने प्राणों से खेलते हैं, उस समय उनके समक्ष मानसिक रूप से इतनी भारी परेशानियां आती हैं कि उसे अपने चित्त की उन विसंगतियों को सम्भालना बड़ा दुष्कर हो जाता है। जिसके कारण से कभी-कभी साधक के चित्र पर इतना बुरा प्रभाव पड़ता है जिसमें उसका यह लोक तो खराब हो ही जाता है आने वाले जन्मों में भी वह योग भ्रष्ट होकर पथ भ्रमित हो सकता है । इस अवस्था को भुक्त भोगी से ज्यादा कोई नहीं जान सकता है।
4. सुषमणा नाड़ी के अन्दर तीन नाड़ियाँ और भी होती हैं जब साधक के प्राण इडा-पिघला से निकलकर सुषमणा में प्रविष्ट होने को होते हैं तब इन तीनों नाड़ियों की जानकारी होना आवश्यक है। ये तीन नाड़ियाँ जिनमें पहली वज्र नाड़ी के
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