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योग और साधना
कुष्ठाग्रस्त होगा जिसकी वजह से उसकी आत्मिक चेतना क्षीण रूप से जाग्रत होगी। उसकी पलट उसकी इच्छा शक्ति पर पड़ती है इस प्रकार इस श्रंखलाबद्ध प्रक्रिया के द्वारा हम दुर्बल इच्छा शक्ति के कारण ही अपने कर्मानुसार पिछले कर्मों को भोगने के लिए नया जन्म पाते हैं। इसके ठीक विपरीत जिनको इच्छा शक्ति प्रबल होती है वे आत्मायें वहाँ इन्तजार करती हैं उचित समय के आने तक का जिससे कि उनके जन्म के समय ऐसे नक्षत्र उपस्थित हों जिससे वे होने वाले जन्म को स्वर्ग की तरह से भोगे ।
इसलिए ध्यान रहे यहाँ जितनी भी असमानता है इस दुनिया में हमारे अपने ही कर्मों के कारण है । यहाँ इस संसार के अलावा न तो कहीं स्वर्ग है और न ही कोई नर्क, न कोई हमें सजा सुनाता है और न ही कोई राजगद्दी देकर हमें यहाँ भेजता है । हमारी अपनी ही कमजोरी हमारा अपना ही अन्धापन हमारे दुखों का कारण बनता है । दूसरे शब्दों में जिन्दगी भर जो हम कार्य करते हैं वैसी ही हमारी मानसिकता आगे के भविष्य में हमें भुगतने के लिए पैदा हो जाती है । " अन्तमता सो गता" ।
अन्य जितने भी प्रश्न हमारे समक्ष उठते हैं इन सबका तर्क संगत उत्तर इस दूसरे मत के अनुसार मिल जाता है क्योंकि इन्होंने परमात्मा को असीमित रखा है, - साकार बनाकर सीमित दायरे में नहीं रखा है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ही प्रकार की चेतना हमारे सभी के भीतर है अगर फर्क है तो ऊपर पड़ी धूल का जिसने कि हमारी चेतना को ढाँप रखा है । किसी के कर्मों की धूल ज्यादा है तो किसी की कम । हमें हमारी चेतना का अनुभव ही पहली बार तब होता है जब हम इस धूल को हटाकर देखने में समर्थ होते हैं। जब तक हमारी चेतना हमारे कुत्सित कर्मों के द्वारा दबी पड़ी है हमें कर्मों के थपेड़ों को सहन करते रहना ही होगा लेकिन जिस दिन जरा सी भी झलक हमें उसकी मिल जाती है, हमारा यह मानव जीवन सफल हो जाता है क्योंकि उसी दिन हमें पता चलता है चेतना के स्तर पर हमारे सभी भीतर एक ही तत्व विराजमान है । कहीं कोई रत्ती भर फर्क नहीं है जो हमारे भीतर है वह तो हमारे पास है ही जो दूसरे के भीतर है वह भी हमारा ही है अथवा दूसरे शब्दों में हम और वह दूसरा बाहरी शाखाओं के स्तर पर तो दो दिखाई देते हैं लेकिन हम सभी में जो शक्ति निरन्तर बह रही है उसका स्त्रोत तो एक ही है । यदि हम अनजाने में दूसरे का नुकसान करते हैं तो वह गहरे में जाकर हमारा स्वयं का ही नुकसान है जो
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