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योग और साधना
भारतीय दर्शन के सिद्धान्त का समय के अनुसार उसके प्रचार का नहीं होना अथवा उसकी व्याख्या आज की वैज्ञानिक भाषा में नहीं होना ही रहा है । ध्यान की इन्हीं शक्तियों के बारे में मैंने पहले भी लिखा है और यहाँ भी यह प्रसंग इसलिये ही उठाया है क्योंकि बुद्धिजीवी मस्तिष्क के अलावा किन्हीं अन्य मानसिक शक्तियों को मानता ही नहीं है । शरीर में फेफड़ों से नीचे और मल मूत्र केन्द्रों से ऊपर के हिस्से को यदि हम अपने अज्ञानवश पेट कहें तो यह हमारी ही नासमझी है । माना कि यह पेट है लेकिन उसमें आमाशय भी है, आँतें भी हैं, गुर्दे भी हैं । अगर हमें पेट को आन्तरिक और सूक्ष्म रूप से जानना है तो इसके अन्दर के विभिन्न अवयवों को अलग-अलग करके समझना ही होगा। नहीं तो हम समझकर भी तथ्य से 'बूक जायेंगे।
यदि हमने ठीक इसी प्रकार अलग-अलग भाग करके अपने आप को नहीं समझा तो वही गलती यहाँ भी हो ही जाएगी। इस बात को बार-बार और अलगअलग तरह से लिखने का मेरा मतलब बड़ा गहन है और वह यह है कि तुलनात्मक रूप से आध्यात्म और विज्ञान के सिद्धान्तों में कुछ अन्तर है.""समझ का । विज्ञान तो तथ्य चाहता है और तथ्य भी ऐसे, जिनको हम अपने पाँचों कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जान सके। जबकि आध्यात्म 'अतिन्द्रय' के अनुभवों में आई बातों को भी मानता है । इसी कारण से जब तक विज्ञान अपने समझने के तरीके को नहीं बदल लेता तब तक यह आध्यात्म के मुकाबले में अधूरा ही रहेगा। यही कारण है कि पश्चिम में लोग विज्ञान के द्वारा असंख्य ऐशो-आराम की चीजों को प्राप्त करने के पश्चात् भी अपने आपको अधूरा ही महसूस करते हैं। तब वे हारकर प्रकृति की शरण में आश्रय लेते हैं अथवा आध्यात्म की दुनियाँ में आत्मा कहे जाने वाले भारत की शरण लेते हैं। इसी कारण से आध्यात्म के हमारे भारतीय शिक्षकों को सारे संसार में सम्मान मिलता है। उनमें चाहे विवेकानन्द हों, महेश योगी हों, रजनीश हों या धीरेन्द्र ब्रह्मचारी।
आध्यात्म को समझने के लिए यदि हम आज के विज्ञान से प्रभावित रहकर इसको समझने की कोशिश करेंगे तो करीब-करीब असम्भव ही होगा क्योंकि आज का विज्ञान मानसिक शक्तियों को भी सीधी निगाह से नहीं देखता जो कि इन्द्रियों के अन्दर ही है। फिर कैसे माना जाए कि यह मन के पार की बातों को मानने को
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