Book Title: Yog aur Sadhana
Author(s): Shyamdev Khandelval
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 227
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साकार हमारा चिन्तन-निराकार हमार मार्ग २२३ जिन्दगी का सम्पूर्ण आनन्द ! अब तक तो वैसे ही जिये थे या शायद आज का यह आनन्द भी भोगना था, इसलिये ही जिन्दगी यहाँ तक इतनी खिंच आयी थी, आज ऐसा लग रहा है जैसे कि हमारा इस पृथ्वी पर जन्म लेने का मकसद पूरा हो गया। लेकिन हम अपनी जिन्दगी में देखते हैं कि पिछली बातों को कहे हुए अभी कुछ ही समय धीमा होता है कि फिर से हम उन्हीं बातों को टेपरिकार्ड की तरह दोहराते चले जाने है। लेकिन जब हम इस प्रकार की बातों पर गौर करते हैं तो पाते हैं कि आज जो मिला है क्या यह ही ज्यादा आनन्ददायक है पिछला इतना आनन्द दायक नहीं था ? लेकिन आगे जब हमें और मिलेगा तब यह आज का मसाला उस दिन आनन्ददायक नहीं रहेगा और बस यही एक कारण है इस संसार के फूलों में से विचरते हुऐ भी हमें एक कमी का आभास होता रहता है। हम चाहते हैं कि आनन्द स्थाई रहे जबकि वह एक तो मिलता ही मुश्किल से है जिसके बदले हम अपनी जिन्दगी की पूरी चाह भी लगा देते है, और फिर जब हमारे देखते-देखते हम से वे आनन्ददायक घड़ियाँ विदा होती है तो निश्चय रूप से इस जगत की नश्वरता को हम पहचान हो जाते है। बुद्ध भी अपने घर राजमहल में मस्त ही तो थे । नई पत्नी, नया शरीर, हर तरफ उनका ही तो साम्राज्य था । शुरू में वे यही समझे थे कि यह आनन्द सदा ऐसे ही रहने वाला है लेकिन वे इसकी नश्वरता का पता लगाकर ही शाश्वत आनन्द की खोज में निकल सके थे। ध्यान रखना अभी जिनके ज्ञान चक्षु नहीं खुले हैं केवल वे ही इस नश्वर दुनिया में अंधे होकर रह सकते हैं । उनको अभी उस शाश्वत की प्यास ही नहीं जगी है। इसलिये उनकी शंका तो कोई शंका ही नहीं है। मैं ऐसे लोगों के लिए तो परमात्मा से प्रार्थना ही करूंगा कि हे प्रभो, इन्हें थोड़ा सा अपने सुख का मजा अभी और चखाओ, थोड़ी देर के लिए ही सही । इनको अभी थोड़ा सा अपनी माया का मोह और दिखाओं ? जिससे यह इतने ज्यादा आनन्दित हो जायें कि उसके अनाथा इन्हें और कुछ दिखाई ही न दे। ऐसी प्रार्थना करके मैं इस प्रकार के लोगों के प्रति कोई वैर भाव नहीं प्रदर्शित कर रहा हूँ। बल्कि मैं तो जितना जानता हूँ उसके अनुसार मैं ऐसा उनके भले की ही सोचकर कह रहा हूँ। क्योंकि माया का एक निश्चित सिद्धान्त है कि वह सदा एक जैसी नहीं रहती। उसका स्वभाव सदा परिवर्तन शील रहता है। इसी वजह से समझदार लोग अपने बुरे दिनों में अपने आपको यह कहकर संयत रखते हैं कि जब वे दिन नहीं रहे तो ये दिन भी नहीं For Private And Personal Use Only

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