Book Title: Yog aur Sadhana
Author(s): Shyamdev Khandelval
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 225
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साकार हमारा चिन्तन - निराकार हमारा मार्ग के लिए कहाँ और किस प्रकार से साधना करती है। इस बात को समझने के लिए: हमें ग्रन्थों में कही गई बातों का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि वैसी अवस्था वाली आत्मा इस पृथ्वी पर ही जब नहीं आती तब उस प्रक्रिया की सिवाय पंथ के द्वारा समझने के और अन्य कोई उपाय हमारे पास नहीं बचता । २२१ वे कहते हैं इस पृथ्वी लोक के अलावा अन्य लोक भी हैं । जिनमें मानव की आत्मा अपने अपने स्तर के हिसाब से रहती है। उनमें से जो निचले स्तर की आत्मायें हैं वे तो इस धरती के आस-पास ही चक्कर लगाया करती हैं क्योंकि उनको तो वहाँ का एकान्त चैन नहीं लेने देता, कोई संगी नहीं, कोई साथी नहीं वहाँ भी कोई मजा है लेकिन जो उच्च आत्माऐं होती हैं जिन्होंने सुख और दुख के अतिरिक्त आनन्द का भी स्वाद ले रखा है वे अपने आनन्द में एकान्त को ही ज्यादा पसन्द करती हैं और जैसे-जैसे वे एकान्त में विभोर होती जाती हैं सम्बन्धों के बन्धनों से युक्त इस पृथ्वी से वे अपने आप ही दूर हटती जाती हैं और हमारे ग्रन्थ कहते हैं कि इस पृथ्वी के ऊपर पाँच लोक और भी हैं जिनमें अपने स्तर के अनुसार आत्मायें विराजती हैं छठवाँ लोक भूलोक और सातवाँ इस पृथ्वी के नीचे दुष्ट प्रकार की आत्माओं के लिये है । कहने का तात्पर्य यह है जितनी - जितनी आत्मा अपने आनन्द में डूबकर आत्मानन्द होतो जाती है उतनी उतनी ही वह इस धरती के प्रभाव से मुक्त भी होती जाती है उसका एकान्त उतना ही सघन होता जाता है और जितना उसका एकान्त सधन होता जाता है उतनी ही उसकी वहाँ • ठहरने की क्षमता भी बढ़ती जाती है उसकी वहां ठहरने की क्षमता ही उसकी • साधना का स्वरूप बन जाती है । For Private And Personal Use Only अब उसको इस संसार का कोई भी स्वरूप अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाता । शुरु में पृथ्वीवासियों के कष्टों को देखकर उनको रास्ता बतानें के लिए या उनके बोझों को उतारने के लिये भले ही वह अवतरित हो जाये, (यदायदा धर्मस्य ग्लानि भवति, गीता) लेकिन बाद में वह करुणावश भी इस संसार की लेती है । धीरे-धीरे माया में नहीं फंसती है, वह पूर्ण रूपेण इस तरफ से पीठ मोड़ वह इस संसार की माया से इतनी दूर पहुँच जाती है, कि उस का कोई भी प्रकार अपना प्रभाव नहीं डाल पाता, तब वह शुद्ध पर माया रूपी नशें आत्मा परम चैतन्य

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