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योग और साधना
तो हमने ठंड भोगी और न ही गर्मी, न हमने पिता की मृत्यु का दुखः झेला और न ही अपने पुत्र जन्म का उत्सव, न तो हम किसी की इज्जत करनी पड़ी और न ही हमने बेइज्जती भोगी । आप कह सकते हैं, यह भी कोई जन्म हुआ, इसको कैसे माने कि वहाँ भी कोई आत्मा होती है उस पहाड़ के अन्दर ? अथवा उस पहाड़ की मृत्यु भी होती होगी कभी । लेकिन मेरे देखते प्रत्येक पहाड़ का जन्म होता है। प्रत्येक की मृत्यु भी होती है, बस जरा आप मेरे नजरिये से देखने भर का कष्ट करें।
आप अपने घर बनाने के लिये पहाड़ से पत्थर लाकर उसे अपने घर की दीवाल में लगा देते हैं । वह पच्चीस वर्ष में ही बदरंग हो जाता है, पचास साल में कमजोर हो जाता है और सौ साल में राख । ठीक इसी प्रकार से पेड़ में जो लकड़ी सौ साल तक रह सकती थी लेकिन आपके घर आने के पश्चात् यदि रंग रोगन से रक्षा न की जावे तो वह दस साल में ही बेकार हो जाती है । जब तक वह पत्थर उस पहाड़ का अंग था वहाँ व्यवस्था थी उसे जिन्दा रखने की उस पहाड़ के द्वारा लेकिन वहाँ से निकलने के पश्चात् उसका क्रम पहाड़ की जीवन धारा से टूट गया, बस इसलिये उसकी मृत्यु तो उसी समय हो गयी थी लेकिन, हमें पता चला सौ साल बाद । आज तो यह भी पता चल गया है । पहाड़ बढ़ते भी हैं और घटते भी हैं। जब मैं पढ़ता था छोटी क्लासों में तब एवरेस्ट की ऊचाई 29002 फुट बताई जाती थी, अब वह 30-35 फीट बढ़ गयी । किसी पहाड़ की चट्टान मजबूत होती जाती है, जबकि किसी दूसरे पहाड़ का क्षरण भी होता जाता है । लेकिन काफी लम्बा समय लगने के कारण हमें इस प्रक्रिया का शीघ्र पता नहीं चलता और चूंकि वह बहुत लम्बे समय में परिवर्तित होता है, इसलिए उसे हम जड़ कहने की भूल कर लेते हैं क्योंकि हमारी उम्र उसके मुकाबले बहुत थोड़ी है, हमने जड़ और चैतन्य का पैमाना अपनी उम्र के हिमाब से बनाया है। मैंने तो सुना है हमारे पास ही की बारठा की खदानों में काफी गहराई तक चुदाई करते समय मजदूरों को ऐसा पत्थर भी मिलता है जिसे पहाड़ में से निकालने के पश्चात् भी उसमें थोड़ी देर तक थिरकन होती है, मजदूर उसके नरम व हिलते रहने की वजह से उसे पहाड़ का दिल कहते हैं, बाद में वह आम पत्थरों जैसा ही हो जाता है । कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि पहाड़ भी जीवधारी होते हैं लेकिन उनमें क्रियाशीलता की गति इतनी धीमी होती है कि हम उसे जीवित ही नहीं मानते ।
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