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योग और साधना
इसके दो भाग कर रहा हूँ । प्रथम है स्थूल साधना और द्वितीय है सूक्ष्म साधना साधना के प्रथम भाग में यानि (स्थूल साधना) में हमें अपने स्थूल शरीर को साधना पडतो है जबकि (सूक्ष्म-साधना) में हमें अपने मन को साधना पड़ता है।
इस कुण्डलिनी को जागृत करने की साधना के दौरान हमें हमारे जीवन के लिए बड़े संकट उपस्थित हो सकते हैं क्योंकि सूक्ष्म साधना हमें अपने अचेतन की अवस्था की ओर ले जाती है और चूकि हमने अपने शरीर को इस अप्रत्याशित 'घटना के लिए पहले से तैयार नहीं किया है इसलिए ध्यान रखना, हमारे लौटने की व्यवस्था में अवरोध पैदा हो सकता है। जिसके कारण से हमारे बिना मरे भी दुनियाँ वाले हमें मृत घोषित करके हमारे शरीर को नष्ट कर सकते हैं । इसमें दुनियां वालों का कोई कसूर नहीं है । कसूर यदि है तो वह हमारा ही है और वह भी केवल इतना कि हम विना अपने शरीर की क्षमता नापे ही शरीर को छोड़कर मन की गहराईयों में कूद गये थे । जब हम इस शरीर में रहते हैं । तब हम अपनी बुद्धि के द्वारा दोनों इड़ा और पिघला नाड़ियों में सामजस्य रखते हैं यानि हमारा नरवस सिस्टम टीक रहता है लेकिन यदि इस नरवस सिस्टम में जरा भी गड़बड़ी हो जाय तो ध्यान रखना, फिर उसका ठीक होना करीब-करीब नानुमकिन ही होता है। मेडीकल साइन्स की दृष्टि से भी और आध्यात्म की दृष्टि से भी। क्योंकि आध्यात्म जिन नाड़ियों को. आधार बना कर प्रयोग करता है, यदि वे आधार ही समाप्त हो जायें तो वहाँ किस प्रकार से दुबारा सामान्य स्थिति आयेगी इसलिए हमें पहले अपने शरीर को कठिन साधना में, कठिन तपश्चर्या के द्वारा तपाना ही होगा अन्यथा हमारे असफल रहने की ही ज्यादा संभावना है। फिर भी यदि कोई बिना किसी साधन को साधे ही मन वाँछित फल प्राप्त करता है तो भी ध्यान रखना, उसके नित्य कर्मों में या उसके अपने धन्धे में कोई कर्म ऐसा है जिसने उसको सक्षम बना दिया है अथवा उसका मस्तिष्क उन कठिन परिस्थितियों को सहन करने के लिए उसके नित्य कर्म के द्वारा इस काबिल हो गया है।
जैसे कोई व्यक्ति पानी में गोता खोरी करता है । उसे काफी देर तक गहरी साँसें रोके रखने का अभ्यास हो जायेगा । कोई व्यक्ति एयरफोर्स में नौकरी करता है । उसे हवाई जहाज से छाता लेकर कूदने के दौरान वार-बार मृत्यु जैसी स्थिति
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