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योग और साधना
प्राणायाम में हम बाहर किसी विद्यत का सहारा नहीं लेते बल्कि अपनी स्वयं की शक्ति, जो कि विचत की ही शक्ल में होती हैं, का उपयोग करते हैं। यहाँ पर सुविधा भी दोनों तरह की है ऋणात्मक भी और धनात्मक भी। हम अपने नित्य कर्मों में उसका अनुभव भी करते हैं। हमारे पास एक ही शक्ति है, लेकिन जब उसे हमः प्रेम में स्तमाल करते हैं तो विद्य तीय प्रवाह का दूसरा ध्र व होता है जबकि क्रोध में वह अपने आप इसके विपरीत ध्रव की विधुतीय प्रवाह में बदल जाती है । जब से मवान्टा का सिद्धान्त रसायन विज्ञान के द्वारा इस संसार के समक्ष आया है तब से यह बदलाव मात्र कपोल कल्पित नहीं रह गया है क्योंकि पदार्थ का अणु, परमाणु, न्यूट्रान प्रोटोन और इलेक्ट्रान की खोज के आखिरी में जब क्वान्टा की जानकारी हमारे समक्ष में आती तब उसका ध्रुव बदलता ही तो रहता है।
जिस प्रकार अनन्य कारणों से एक प्रवाह दोनों ध्रवों को अपना लेता है, ठीक उसी प्रकार हमारी कुण्डलिनी शक्ति से जब बुद्धि को जिस प्रकार की शक्ति की अपेक्षा जहां होती है उसने ही परिमाण में उतने ही वोल्टेज की तथा उसी ध्रव की विद्युत को हमारा नाड़ियों का जाल जो इस तमाम शरीर में वायरिंग का काम करता है चाहे गये स्थान पर पहुंचा देता है।
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