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योग और साधना
बार इस प्रकार से वितर्कानुगत् की अवस्था में हमारे समक्ष स्पष्ट होती है ।
जब हमारे सारे के सारे तर्क, शंकायें गिर जाती हैं तब ही हमारा विचार शुद्धतम रूप में हमारे समक्ष व्यवस्थित होता है। उससे पहले भटकाव होगा, हमारे विचारों में स्थिरता नहीं आवेगी हमारा अपना साहित्य नहीं होगा, हमारे विचारों में कहीं की ईट और कहीं का रोड़ा होगा हमारा अपना दर्शन नहीं होगा इसलिए प्रकृति के बारे में हम इन बुनियादी बातों को जानकर ही हम अपने विचारों को स्थिर कर सकते हैं और तब यह हमारे सामने दूसरी बार विचारानुगत् की अवस्था में हमारे समक्ष स्पष्ट होती है ।
इसी की अगली कड़ी है, जब हमारे विचारों में ठहराव आ जाता है । मस्तिष्क की भटकन समाप्त हो जाती है, जिसकी वजह से हम हमारे शारीरिक सुख-दुख का विशेष आग्रह नहीं रखते जो कि आनन्द का कारण बनता है, क्योंकि जब ही हमें पता चलता है कि सुख-दुख हमारे शरीर के स्तर पर घटित होते हैं न कि चेतना के स्तर पर । हमारे भीतर हमारी चेतना न तो दुख महसुस करती है और न ही सुख । न वह सोती हैं, न बह जागती है, न उसे भूख लगती है और न ही उसे रोग होता है, क्योंकि वह चेतना तो सदा स्वस्थ तथा चैतन्य रहती है । ये सारे के सारे अनुभव हमैं केवल इस शरीर के स्तर पर ही घटित होते हैं, इस बात को जानकर ही हम सुख-दुख से परे हो जाते हैं, हम इनको इतना महत्व ही नहीं दे पाते हैं जिस समय हमारी यह स्थिति आती है ठीक उसी समय हम आनन्द से भर उठते हैं क्योंकि आनन्द एक स्थिति नहीं बल्कि वह एक प्रकार का स्वभाव है हमारे चित्त का । जब वह चित्त सुख और दुख के प्रभाव से मुक्त हो जाता है तब वहां केवल आनन्द ही वचता है । लेकिन होगा यह तब ही, जब हम प्राणों का अनुभव प्राप्त कर लेंगे और इसी अवस्था में हमारा चित्त आनन्द के अनुगत या आनन्दानुगत् समाधि के स्वरूप को जान पाता है ।
प्राणों के अनुभव प्राप्त करने के पश्चात् ही हम समझते हैं उस अवस्था को, जिसको आधार बनाकर प्राण यात्रा करते हैं । यहाँ यह समझ लें प्राण बीज नहीं है किसी पौधे का बल्कि प्राण तो वह शक्ति है जिसके द्वारा बोज चैतन्य
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