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कुण्डलिनी जागरण ही समाधि
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आराम में आ सकते हैं या ज्यादा से ज्यादा देर तक उस अवस्था में अपने आप को बनाए रख सकने के लिए अपनी क्षमता बढ़ाने में अपना समय लगा सकते हैं जोकि इस साधना का परम उद्देश्य है । लेकिन इस अवस्था में आगे और ज्यादा साधना करने में हमें हमारी सांसारिक जिम्मेवारियाँ बाधक बनती हैं क्योंकि फिर इस साधना में इतना ज्यादा समय लगने लगता है जिसके कारण गृहस्थ को साथ लेकर चलना बड़ा कठिन होता है लेकिन यहाँ यह भी नहीं समझना चाहिये कि हमारे घर त्याग करने के पश्चात हमारे पास बहुत समय हमें मिल जायेगा । जबकि हकीकत तो यह है कि रोटी बनाने और प्राप्त करने में ही इतना समय निकल जाता है या इतना ज्यादा शारीरिक श्रम हो जाता है कि बाद में बचे हुए समय में हम कुछ भी साधना नहीं कर पाते हैं । इसी बात को ध्यान में रखकर इस दुनियाँ में साधकों ने बस्ती से दूर योग साधना को सतत् चालू रखने के लिये आश्रम प्रणाली ईजाद की होगी, जिसमें दस पांच शिष्य रहते वे अपनी साधना में रत अपने गुरूजी की सुरक्षा करते, बस्ती से भिक्षाटन करते, बस्ती में भिक्षाटन करके अपनी तथा गुरूजी को समयानुकूल रखने की व्यवस्था रखते, लेकिन आजकल इस प्रणाली में भी दरारें पड़नी शुरू हो गयी हैं। जब से धन्धे में और राजनीति में लिप्त गुरु पैदा होने लग गये हैं क्योंकि आजकल आश्रमों में से भीड़ के कारण शान्ति गायव हो गयी है, जो कि साफ तौर पर इस युग का ही प्रभाव है।
शायद इसी बात से दुखी होकर आध्यात्म के मूर्धन्य साधक एवं युग-दृष्टा श्री तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है "कलियुग केवल नाम अधारा" उनके इस वक्तव्य से बहुत से साधक इस साधना को शुरू करना ही व्यर्थ समझते हैं । लेकिन श्री तुलसीदास जी की चौपाई का अर्थ यदि हमने इस तरह से लिया तो ध्यान रखना हम समझकर भी चूक गये जो समस्या आज है, उनके सामने भी थी लेकिन फिर भी उन्होंने इस मार्ग के अनुभव को आखिरी मन्जिल तक अपनी स्वयं की साधना करके जाना था । नहीं तो ऐसा वक्तव्य वह दे ही नहीं सकते थे। जब उन्होंने अपनी इस साधना के द्वारा ज्ञान प्राप्त हो गया कि हमारे शरीर के अलावा अन्य सूक्ष्म शरीर भी मौजूद है तभी वे अपने राम के सूक्ष्म रूप में होने वाले साक्षात दर्शनों पर विश्वास कर सके । जिसके कारण वे राम के पैदा होने के हजारों साल बाद भी उनकी भक्ति में लीन हो गये तो हमें ध्यान रखना है कि हम अपनी बुद्धि की किसी चालाकी से अपने आपको उस अनुभव से वंचित न कर लें।
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