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कुण्डलिनी जागरण ही समाधि
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प्रकार का भारीपन लिए तेज शोर मैं सुन रहा था और ज्यादा ख्याल में लाने पर मैंने स्पष्टतः जाना कि यह घटना मेरे चित्त लेटे होने की दशा में, मेरी रीढ़ की हड्डी में घट रही है। जिसमें कुछ न कुछ नीचे से ऊपर की ओर तेजी से शोर करते हुए प्रवाहित हो रहा है । जब मेरे ख्याल में रोड़ की हड्डी की बात मायो तो मुझे यह भी समझते देर नहीं लगी कि हो न हो शायद सुषमणा में प्राण चढ़ कर ऊपर जा रहे हैं। इतना सब कुछ मेरे बिना कुछ किए ही हो रहा था।
ठीक इस विचार के आते ही मन में विचार आया कि अब नीचे कैसे उतरेंगे, बस यही विचार मेरे भय का कारण बना। इसके पहले कोई भय मुझे नहीं था और इस विचार के आते ही जो शोर ऊपर चढ़ते हुए हो रहा था मद्विम हो गया तथा जो मुझे अपने मेरुरण्ड में बढ़ता प्रतीत होने लगा था वह अब उतरता हुआ प्रतीत होने लगा।
अब मैं ऐसे भवन में था जिसकी दूसरी तीसरी मंजिल की सीढ़ियों पर मैं खड़ा था। नीचे पैरों की तरफ से आते हुये एकाश को मैं देख रहा था । मैंने खूब जोर लगाया कि मैं कहाँ आ गया हूँ ? शोर वगैरहा सब बन्द थे लेकिन समय मैं कुछ भी नहीं पाया, थोड़ी देर बाद जब मैं स्वयं बोड़ा होश में आया तो स्वास को चलते पाया, ऐसा लगा कि पहले से ये बन्द थी, बस अब ही शुरू हुई है, मेरी आँखें खुली थी और कि मैं लेटा हुआ था, तथा टाँगों की तरफ से अपने बन्द कमरे में आती हुई रोशनी मुझे उस समय दिखाई दे रही थी।
वैसे तो मैं अपने आपको उस समय पूरी अवस्था में जागृत महसूस कर रहा था लेकिन अपने कमरे के इस रोशनदान ने बता दिया कि मैं धीरे-धीरे ही जागृत हुआ हूँ, यही कारण है कि जब मैं अर्द्ध जागृत था तो इस रोशनदान तथा अपने ही कमरे को सही रूप से पहचान नहीं पाया या कुछ का कुछ समझ गया था । बाद में मुश्किल से दो मिनट बीतते बीतते मैं पूर्णतः स्वस्थ एवं जागृत था इसलिए मैंने सोचा अब उठना चाहिए लेकिन इस उठने वाले शब्द को क्रियान्वित करने के लिए जैसे ही मैंने उठने की कोशिश की, मेरी पीठ की हड्डियाँ कुछ आवाज करने लगीं और ऐसा लगा कि मेरी तमाम हड्डियाँ जाम हो गयी है पैर जब सिकोड़े तब तो और भी परेशानी आयी। धीरे-धीरे उठकर बैठ गया। सारे हाथ पैर ऊपर नीचे किये, कमर इधर-उधर घुमाई तब कहीं जाकर शरीर सामान्य बना।
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