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ही वनाधि
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का समाधान लिखे जायें तो सारे के सारे संसार का कागज भी कम पड़ जायेगा । शायद रजनीश इतनी ज्यादा व्याख्या अपने शिष्यों को ज्यादा संख्या में प्रभावित करने के लिए ही कर रहे हैं। मैं नहीं जानता शब्दों के इतने ज्यादा उलझाव के पीछे उनका इसके अलावा और क्या उद्देश्य है ! अगर वे बुद्धिजीवियों की बुद्धि के रक्ष पर हताश करके या उन्हें हराकर इस पूर्ण का अनुभव कराना चाहते हैं तो मेरे देखते गलती ही करते हैं क्योंकि शब्द में ज्ञान कहाँ ? ज्ञान तो स्वयं में है
में अनुभव कहाँ ? अनुभव तो स्वयं करना पड़ता है। तभी हम उस प्रसाद कोच सकते हैं। हम कितना भी पढ़ लें, पढ़ लेने मात्र से कुन्डलिनी जापत महीं हो सकती । बुद्धि एक प्रकार से ऐसा मर्ज है जिसका जितना भी ज्यादा इलाज किया जावे, मर्ज उतना ही बढ़ता जाता है और रजनीश लगे हैं बुद्धि का इलाज करने में इसलिए केवल मोटी मोटी बातें जोकि आधार स्तम्भ है इस साधना के मैं केसल उन्हीं पर चर्चा करना चाह रहा हूँ। यह ठीक है देर सबेर उन तमाम परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है जिन संस्कारों के द्वारा हमारी मान-संत है उन संस्कारों से अपने आपको मुक्त करने के लिए हमें पहले उनके द्वारा भटकना ही होगा ।
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मुझे अच्छी तरह से खूब याद है कि जब में प्राणायाम के अभ्यास पर था बी मिष्ठा, लगन एवं अपने सम्पूर्ण मनोयोग के साथ तथा शरीर को भी बिलकुल areकर प्राणायाम किया करता था । उसमें मुझे जल्दी ही अच्छी सफलतायें भी मिली थी यानि में समय के हिसाब से काफी देर तक कुशंक कर लिया करता था ।
देर तक कुक करने के पीछे में यह सोचा करता था कि मेरी ममता बाद मैं इant अधिक वह बागी जिलों से चार घन्टे बिना स्वांस के भो में जीवित रह सकता। होशपूर्वक अपने प्राणों को अपनी मुट्ठी में बन्द करने की कहीं अ समय की होगी और इस समाधि को अवस्था में स्थान को रोके रखे जाने के कारण अपनें कितने स्वांतों को मैं क्या दूँगा, उतनी ही ज्यावर जिन्दगी मे
मेगी लेकिन मांगे को सामना को अपने मन में लाने के पश्चात् मेरी उप निष्या धारणा मेरे लिए गर्म हो गयी थी ।
इसी प्रकार की बातें आजकल योग के अध्यापक जो सेन्ट्रल स्कूलों में "योग