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Achar
सात पत्र
१८३
कुछ लोग कई प्रकार की मुद्रा लगाकर बैठते हैं इस कारण से कि प्राण ऊपर पढ़ने की बजाय कहीं मल, मूत्र, आंख, कान, नाक व मुह के रास्ते ही शरीर के बाहर न निकल जावे लेकिन यह कोरा भ्रम ही है क्योंकि जब तक हम कत्ता के रूप में वहां मौजूद हैं तब तक प्राण किस प्रकार से बाहर निकल सकते हैं क्योंकि कर्ता बिना प्राण के नहीं रह सकता और जब तक का सवार है प्राणों के ऊपर तब तक इस प्रकार की कोई सम्भावना नहीं हो सकती, और जब इसके विपरीत यदि ऐसी स्थिति बनने लगेगी जिसमें प्राण कर्ता को दबायेंगे, उससे पहले तो कर्ता स्वयं जो वह प्रक्रिया अपने द्वारा क्रियान्वित होने दे रहा है अपनी क्रिया को छोड़ देगा और फिर भी यदि प्राणों को निकलना ही होगा तो क्या वे प्राण इन द्वारों को बन्द कर देने मात्र से उस शरीर के अन्दर रुक सकते हैं ? इसलिये यह भ्रम ही है कि मूल बन्ध या उड्डीयन बन्ध लगाकर ही बैठना चाहिये अथवा खेचरी मुद्रा लगाकर ही बैठना चाहिये नहीं तो मृत्यु । हो जावेगी।
प्राणायाम को अन्तिम अवस्था में तो ये तमाम क्रियायें या मुद्रा बन्धन ही मालम पड़ते हैं लेकिन प्राणायाम की प्रथम अवस्था में साधक को इनसे होसला बना रहता है । इसके अलावा इन बन्धों व मुद्राओं के द्वारा हम अपने मन एवं शरीर को स्थिर रखने में सफल होते हैं जो कि हमारे लिए साधना के समय बड़े भारी लाभ का कारण बनता है।
जहाँ तक प्राणायाम के द्वारा हमें हमारे शरीर को हानि पहुंचने का प्रान है, हमें प्राणायाम से हानि केवल उसी अवस्था में हो सकती है, जब हमारा शरीर इस साधना के समय बाधा बनता है लेकिन तब भी हानि हमें मत्यू के रूप में नहीं बल्कि ज्यादातर तो हमारे मस्तिष्क के कोषों को तथा उससे सम्बन्धित नरवत सिस्टम को उठानी पड़ सकती है जैसे विद्युत के लिये फैले हए तारों पर उनकी क्षमता से ज्यादा विद्य त प्रवाहित कर दी जावे तो उन तारों के गर्म होकर जल जाने का खतरा पैदा हो जाता है । इस असामान्य अवस्था में यदि किन्हीं तारों में विद्युत के प्रवाह के रास्ते में अवरोध और आ जाये तो फिर शार्ट सर्किट को टालना करीब-करीब कठिन ही होता है। इसलिए साधना को धैर्यपूर्वक एवं धीरे-धीरे
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