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योग और साधना
जब तक हम सामान्य अवस्था में होते हैं तब तक हम वीज स्वरूप होते हैं । अगर हमें अपने बीज में से अंकुर निकालने हैं तो हमें अपने बीज की मृत्यु तो सहन करनी ही होगी क्योंकि भला बीज के अपनी अवस्था में ज्यों की त्यों बचे हुए भी कहीं किसी बीज में से अंकुर निकलते हैं यदि हमें मुपमणा का अनुभव लेना है तो हमें इड़ा पिघला के स्थूल स्वरूप में से मिटने को तैयार रहना ही होगा। इसमें यह शर्त साथ नहीं लग सकती कि अंकुर पूटने की गारण्टी होनी ही चाहिए । यह निर्भर करता है तुम्हारे अपने स्वभाव पर कि आपका बीज, जो परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं, उन्हें झेल सकता है या नहीं। जिन इड़ा पिघला नाड़ियों के द्वारा जो आज तक हमने जाना है जिसमें हमारा प्रत्येक कर्म और मस्तिष्क शामिल है, इनके प्रति मोह तो हमें छोड़ना ही होगा। भक्ति के मार्ग में समर्पण के भाव में अमोह की स्थिति आ जाती है तथा निरन्तर परमात्मा के प्रति लगी हुयी प्यास के द्वारा हममें चेतना के स्तर को जागति भी हमें हो ही जाती है तथा तीसरी बात जब हम अपने मोह से परे हो गए तो हम फलाकाँक्षा के रोग से भी बच जाते हैं और फिर ये तीनों चीजें हमें अपने आपको मिटाने में सहयोग करती है । सच्चा भक्त इन्हीं लक्षणों से ओत प्रोत रहता है, यही सच्चा मार्ग है लेकिन भक्ति का यह मार्ग गृहस्थ में रहकर करीब-करीब असम्भव सा हो जाता है क्योंकि घटना तो पता नहीं कब घटेगी लेकिन भाव तो आज ही बदल जाते हैं जैसे कल तो हमारी भावना समर्पण की थी लेकिन, हमारे वे भाव जो कल थे आज नहीं हैं। इसलिए यदि इसमें ज्ञान शामिल करके कोई धार्मिक प्रक्रिया जोड़ दी जाये तो रास्ता इतना दुरुह नहीं रह जाता या इतना लम्बा नहीं रहता।
___ यहाँ ध्यान रखना बिना भक्ति के तो हम आगे बढ़ ही नहीं सकते तो अन्दर भक्ति होना बहुत जरूरी है। भक्ति यानि तीनों चीजें समर्पण (मिटने को तैयार होना), जागृति (होशपूर्वक), और अभीप्सा (लो, लगन अर्थात) होश पूर्वक सतत लौ जलाए हुए अपने आपको उसे समर्पित कर देना ही भक्ति है ।
पीटर हारकोस भी दुर्घटना से पहले अपने कार्य के प्रति मनोयोग से समपित ही था तथा उसकी प्रत्येक कूची मौत की सीढ़ी पर उसके अन्दर लगातार होश ही तो जगाती रही थी। वह कभी नीचे झांक कर डरता नहीं था । वह बड़ा मस्तमौला टाइप का इन्सान था। वह भयभीत भी नहीं था, कहीं भयभीत इन्सान इतनी रिस्क उठाता है कि बिना उतरे ही नसैनी से पलटा खाये । कितने गजब की
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