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योग और साधना
पश्चात् दिखाई पड़ते हैं।
गणित को भी लगायें तो तब भी मामला एक दम से सुलझा हुआ है । सागर के पानी में और हमारे पास की एक बूंद के पानी में कुछ तात्विक भेद तो नहीं है जो हाइड्रोजन और आक्सीजन सागर के पानी में होती है । वही इस द के पानी में भी तो है । केवल यदि कुछ भेद है उस अथाह सागर और इस द में, तो वह केवल परिमाण का ही है जो इस असीम ब्रह्माण्ड में रचे बसे ब्रह्म में है वही हमारे इस छोटे से ही अंश में है। फिर हम और वह अगल अलग क्यों हो सकते हैं । यदि वह ब्रह्म है तो हम भी ब्रह्म ही हैं यह हो सकता है कि वह सागर हो और हम बूद, वह परमात्मा हो और हम आत्मा, वह अंशी हो और हम उसके अंश । यही है उस वाक्य की विवेचना जिसमें कहा गया है "अहम् ब्रह्मास्मि"।
उस परम सत्ता का क्या छोटा और क्या बड़ा ? इसलिए ध्यान रहे जो कुछ भी हमारे द्वारा उस परमात्मा का रूप दृश्य रूप में इस दुनियां में जितने परिमाण में हमें दिखाई देता है वह हमारी और अपनी क्षमता के अनुसार ही हैं उसके भण्डार में कोई कमी नहीं। यही कारण है जिसमें अलग-अलग साधकों की उनकी अपनी साधना के हिसाव से अलग-अलग स्थिति हमें यहाँ देखने को मिलती
यहाँ यह सत्य है कि अभी तो हमारी भी आकांक्षायें हमारे संस्कारों के कर्माशेषों में पड़ी है । इस कुन्डलिनी साधना के द्वारा ही उन्हें उनकी सूक्ष्म अवस्था में ही हम भस्म कर सकते हैं अथवा उन्हें जड़ रूप में ही समाप्त करने की क्षमता जागृत कर सकते हैं । यदि फिर भी हमें इस दुनिया में आना पड़ता है तो इसका कारण-हमारे ऐसे कर्म होते हैं जो किन्हीं दूसरी आत्माओं से संबंधित होते हैं जिनको इस दुनिया में जन्म लेकर दूसरों के साथ रहकर ही भुगताया जा सकता
अब प्रश्न उठता है कि जब सूक्ष्म सूक्ष्म को ही जान सकता है तब हम अनुभवों को इस स्थूल मस्तिष्क के द्वारा किस प्रकार से जान सकते हैं ? मैंने इड़ा पिंपला के अतिरिक्त तीसरी सुषमणा नाड़ी के ऊपर लिखते हुए पूर्व में बताया है
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