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योग और साधना..
से निकल कर इस स्थूल शरीर के केन्द्रों से बाहर निकल जाए तो मृत्य हो जाती है लेकिन यदि यही शक्ति इडा पिघला में से निकल कर शरीर से बाहर निकलने की बजाय सुषमणा में ऊपर की ओर बढ़ जाती है तब हम मृत्यु को तो प्राप्त नहीं होते, लेकिन हमारा शरीर ऐसी अवस्था में मृत प्रायः दिखाई देने लगता है। जीवित होने की हमारी तमाम पहचानें समाप्त हो जाती हैं। इसी अवस्थाको हम समाधि की अवस्था कहते हैं। इस समाधिस्थ अवस्था में हम कि स्थल शरीर से सुषमणा के द्वारा सूक्ष्म शरीर पर पहुंच जाते हैं । इसलिए नाना प्रकार के अनुभव या दृश्यों का आनन्द हम उठाते हैं। जिनको फिर हम दोबारा होम में आ जाने के बाद भी जिन्दगी भर नहीं भुला पाते हैं। जिनकी वजह से हम बाद में अपने आपको एक प्रकार से विशेष परिस्थिति में पाते हैं। जितनी ज्यादा देर तक हम उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा सूक्ष्म जगत में रहते हैं। उसके बारे में हमें और ज्यादा जानकारी या उसकी शक्तियों से हम ओत-प्रोत स्वतः ही हो जाते हैं । इस प्रकार की शक्तियों के हमें मिल जाने से हम इस संसार में अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ विशेष हो जाते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व साप्ताहिक हिन्दुस्तान के "रहस्य रोमांच विशेषांक' में मैंने एक अमरीकी “पीटर हारकोस" की कथा पढ़ी थी। इस कथा की विशेष बात यह है कि कथा का हीरो यानि पीटर हारकोस अभी तक जीवित है और पीटर हारकोस फाउण्डेशन न्यूयार्क यू० एस० ए० का वह अध्यक्ष है। घटना के अनुसार अपनी जवानी के दिनों में बेहद गरीब लेकिन शरीर से स्वस्थ मजदूर था। वह दीवालों पर रंग पुताई का कार्य किया करता था। एक बार उसे सेना की बैरिकों की पुताई का काम मिला । जिनकी ऊँचाई तीन-तीन मंजिल की थी। दोनों तरफ की बैरिकों की लाईन के बीच में तीस फुट की गली थी। दोनों ओर उसे एक जैसा रंग ही करना था। कोई भी सहायक उसके पास नहीं था। उसने अपनी एक तीस फुट की सीढ़ी तथा ब्रश और रंग का डिब्बा लेकर काम शुरू कर दिया। बीच गली में उसने सीढ़ी को इस प्रकार से खड़ा किया था कि वह सीढ़ी पर चढ़े-चढ़े ही जा वह एक तरफ की दीवाल पर पुराई कर लेता तो वह उतनी ही ऊँचाई की दूसरी तरफ वाली दीवाल पर पुताई करने के लिए सीढ़ी पर से नीचे उतरे बगैर ही इस तरफ से जोर से झटका लेता और अपने डिब्बे और सीढ़ी सहित दूसरी तरफ की दीवाल पर पहुँच जाता था। इस तरकीब के द्वारा वह बार-बार के सीढ़ी पर
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