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योग और साधना
वह उस गर्भ से बाहर निकलने का उपक्रम करने लगता है ।
यदि बात इस तरह से भी है तब भी अड़चन है क्योंकि हम देखते एक तो 'माँ और बच्चे के खून का ग्र ुप नम्बर एक ही हो यह जरूरी नहीं है जबकि मस्से ही होना जरूरी है । दूसरी बात जबकि गर्भस्थ शिशु में मानव के मस्से में किसी भी प्रकार
शरीर के साथ जन्म से
और उसके अलावा शरीर के खून का ग्रुप एक मस्सा केवल एक माँस का पिण्ड मात्र होता है । सम्पूर्ण अवयव तथा साथ ही मन और बुद्धि भी जो कि से सम्भव नहीं है होती है और तीसरी बात मस्सा हमारे आता है और मृत्यु पर्यन्त तक अपनी बृद्धि को प्राप्त होता जीव के सम्पूर्ण जीवन तक ही रहता है जबकि गर्भ केवल सीमित अवधि तक के लिये ही गर्भ में ठहरता है और आखिरी बात यह है कि मस्सा हमारे शरीर में बिना बीज के प्राप्त होता है जबकि गर्भ बाहरी शुक्र के द्वारा ।
रहता है । यानि वह
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इस प्रकार हम देखते हैं कि मस्से को हम टैस्ट ट्युव बेबी की तरह से प्राप्त नहीं कर सकते हैं जबकि भ्रूण टैस्ट ट्यूब प्रणाली के द्वारा प्रयोगशाला में विकास किया जा सकता है । इसलिये यह बात बिल्कुल साफ है कि शुक्र और डिम्ब के मिलन के साथ ही उसमें प्राण तथा जीव उतर आते हैं और वह सम्पूर्ण स्वतन्त्र जीव हो जाता है । फिर उसे मां के गर्भाशय में रखें या प्रयोगशाला में । ठीक उसी प्रकार जैसे किसी बीज को आप गमले में लगा दें अथवा जमीन में बो दें । वह अपनी बढ़बार शुरू कर देता है ।
तो कहने का मतलब यह है कि आत्मा अपनी इच्छा शक्ति के द्वारा प्रकृति से प्राण रूपी पाँचवें आकाश तत्व को साथ लेकर या उसमें समाकर मन से उत्पन्न संस्कारों एवं प्रारब्ध से उत्पन्न सूक्ष्म शरीर का आवरण ओढ़ कर शुक्र और डिम्ब से उत्पन्न हुए परम निर्वात में उसके निर्मित होने के तुरन्त बाद ही उसमें खिच आती है या उसमें प्रवेश कर जाती है । इतनी प्रक्रिया हो चुकने के बाद वह प्रथम कोष अब प्रधान कोष बन जाता है और चुकि हमारे प्राण और हमारा सूक्ष्म शरीर इसी के रास्ते से आए थे । इसलिए इस देह के रहने तक यहीं से वह बाद के तमाम कोषों की प्रकृति से आकाश की प्राणवीय शक्ति को इंड़ा पिघला और सुषमणा नाड़ियों के द्वारा भेजता रहता है। इस प्रकार से हमारे शरीर में
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