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भक्ति ही चैतन्यता का स्रोत .
काल्पनिक रूप से ही सही पता चलता है, तो इसका सीधा सा मतलब यही है कि मन की काल्पनिक प्रक्रियाओं का जो प्रतिबिम्ब स्वरूप हमारे सामने मौजूद है उसका मूल स्रोत इस ब्रह्माण्ड में (दर्पण के सामने हमारे चेहरे की तरह) कहीं न कहीं होना ही चाहिए । इस प्रकार भी हम यह देखते हैं कि आध्यात्मिक अथवा अभी हम यह कह लें कि काल्पनिक बातों को जानने के लिए, हमें वहीं आधार उपयुंक्त होगा जिसके द्वारा हमें वे काल्पनिक बातें वर्तमान में मातम हो रही हैं न कि अन्य कोई आधार ।
___ अपने मन के स्वरूप को जब हम स्वीकार कर लेते हैं तब हमारे सामने कुछ बातें अपने आप प्रकट होती हैं । जो मुख्यतया पांच हैं :
१. स्वप्न देखना २. कल्पना में खो जाना ३. मानसिक रूप से यात्रा कर लेना ४. मानसिक बन्धन ५. मानसिक दर्द या मानसिक आनन्द
निद्रा के समय हम अपने स्वप्नों में नाना प्रकार के दृश्यों का अवलोकन करते हैं तो वहीं हम, कल्पना में खोकर हम अपने मानस चिन्तन में लीन होते है । जिसके कारण साहित्य सजन की क्षमता हम में आती है। इसी प्रकार से हम अपने स्थूल शरीर से तो घर में बैठे रहते हैं लेकिन अपने मन की इसी शक्ति का उपयोग करके हम कलकत्ता की काली देवी के मन्दिर में मूति के सामने पहुँच जाते हैं और इसी प्रकार की अनन्य काल्पनिक यात्रायें हमारी मानसिक यात्राओं की परिधि में ही आती हैं । जिस प्रकार हमारे शरीर के बन्धन हैं जिनके कारण हम असीमित नहीं हो सकते (जैसे भार होने की वजह से आकाश में उठ तहीं सकते अथवा बिना स्वांस के हम जीवित नहीं रह सकते) ठीक इसी प्रकार ही हमारे इस मानसिक स्वरूप के भी कुछ बन्धन हैं । जैसे हमारी कल्पना में मन के स्तर पर कोई बहुत ही सुन्दर दृश्य उपस्थित होता है लेकिन हम उस काल्पनिक दृश्य को वास्तविक दृश्य में नहीं बदल पाते हैं ये मजबूरी ही बन्धन का कारण यहाँ बनती है।
जहाँ हम मानसिक यात्रा करके मानसिक रूप से पहुँच जाते हैं, लेकिन
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