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गुरू वह है जो होश जगाए, जागृति लाए, मार्ग दिखाए
होता है अथवा थोड़ी घबराहट सी पैदा करने वाला होता है । लेकिन धीरे-धीरे यह बड़ा सुरीला तथा सहज हमें लगने लगता है जिसके कारण किसी-किसी साधक को तो बड़ा मनोरंजक भी लगने लगता है । जब यह स्थिति हमारे लिए सामान्य हो जाती है, तब हम अपने आपको आनन्द की सीमा में मान सकते हैं । लेकिन इतना सब करने के पश्चात भी हम आधे-अधूरे ही रहते हैं। क्योंकि, ये सब स्थितियाँ कर्म और ज्ञान के द्वारा हमें प्राप्त हो जाती हैं । यह ठीक है; इतना कार्य कर चुकने के पश्चात हम अपनी ज्ञान और कर्म इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन जब तक इस साधना में जिसमें ज्ञान और कर्म मौजूद हैं भक्ति का समावेश नहीं किया जाएगा तब तक वह साधक इन्द्रियातीत अनुभव करने का अपने आपको पात्र नहीं बना पाता है। जिसके कारण उसकी स्थिति जंगल में सूखे ठूंठ सी बनी रहती है जिसमें कोंपलें नहीं फूटती; और जब जिस पेड़ में हरियाली ही नहीं है उसमें फल या फूल खिलने की कामना करना तो व्यर्थ ही है । इसलिए कबीरदास जी ने समझा-समझाकर यही बात कही है
सुन्न मरं, अजपा मरें, अनहद् हू मर जाय ।
एक राम सनेही ना मरं, कह कबीर समझाय ॥
इन तीनों अवस्थाओं को (सुन्न, अजपा और अनहद ) अपने अनुभव में जानकर साधक को रुक नहीं जाना चाहिए अथवा यह नहीं समझ लेना चाहिये कि मेरी यात्रा पूर्ण हो गई है, इस प्रकार की भूल अक्सर इस अवस्था में आते-आते साधकों को हो जाती है । क्योंकि इतना सब होते-होते अनन्य प्रकार के अनुभव साधकों को होने लगते हैं, जिनको आध्यात्म की भाषा में हम सिद्धियों के नाम से जानते हैं । यदि हम इनके रूप को बिना समझे हो इनका उपयोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के इस संसार में व्याप्त माया जाल के ओर जिसके कारण हम ( इस मृत्यु लोक जाकर बंध जाते हैं। इसलिए कबीर
लिए करने लग जायें तो, ये सिद्धियां हमें भी ज्यादा गहरे में खींच ले जा सकती है। के आवागमन में ) और भी अधिक गहरे में
* आवागमन
-इस पृथ्वी पर जन्म लेकर आना तथा मृत्यु के बाद इस संसार से कूच करके चले जाना ।
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