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गुरू वह है जो होश जगाए, जागृति लाए, मार्ग दिखाए
पर प्रहार करते, राजकुमार बिजली की सी ही तेजी से करवट बदलकर उनके बार को बचा गया, लेकिन निहत्था कब तक बचाता आखिर मार खानी ही पड़ी। पिछली बार की तरह ही इस दिन भी कार्यक्रम उतने ही समय चला, लेकिन इस बार राजकुमार की तत्परता के कारण चोट सिर्फ हाथों पर ही आयी थी; बाकी शरीर बच गया था । तीसरी बार इस प्रकार की घटना पर तो राजकुमार ने अपने आप बिना किसी के कहे सुने आश्रम में लटकी हुई दूसरी लकड़ी की तलवार झपट कर अपने हाथ में ले ली और अगले क्षणों में तो वह अपने बचाव की जी तोड़ कोशिश करने में जुटा हुआ था ।
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निश्चित नहीं होता था, कभी सुबह, कभी खाते समय भी, इसलिए राजकुमार अब अपने था। पता नहीं कब इसकी जरूरत पड़ जावे । अब तो
अब तो करीब-करीब रोजाना ऐसा ही होता था । लेकिन समय कभी रात को और कभी-कभी तो खाना साथ हर समय तलवार रखने लगा उठते-बैठते, सोते-जागते' खाते-पीते राजकुमार का ध्यान हमेशा गुरूजी की तलवार की तरफ ही रहता था, अथवा गुरूजी कहाँ हैं तथा गुरूजी क्या कर रहे हैं उसका ध्यान हमेशा इसी बात पर लगा रहता ।
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महीने भर इस तरह से लगातार गुरूजी की तरफ ध्यान रखते-रखते तो वह स्वयं अपना भी ध्यान भूलने लगा था, क्योंकि अब तो उसकी हालत यह हो गयी थी कि वह कितनी भी नींद में सोया होता और आश्रम में यदि एक कंकड़ भी कहीं से आकर गिरता तो भी उसका हाथ अपनी तलवार की मूठ पर चला जाता था । उसकी इस मानसिक साधना का नतीजा जो होना था वही राजकुमार के साथ भी हुआ । गुरूजी के तलवारों के प्रहारों को वह अब अपने शरीर पर नहीं पड़ने देता बल्कि उनके तमाम प्रहारों को वह तलवार पर ही झेल जाता था । इसी प्रकार थोड़े दिन और बीतने के पश्चात राजकुमार अपना बचाव करने में तो निपुण हो ही गया था साथ ही उसके अन्दर अब अपने आत्म विश्वास की ज्वाला भी जल चुकी थी। जिसकी वजह से वह अति चौकन्ना होकर रहना भी सीख गया था। यानि, उसका मस्तिष्क अब सदैव सक्रिय रहता था । मानसिक बेहोशी का तो कहीं दूर-दूर तक अब पता नहीं था । आलस्य जैसा कोई प्रभाव तो उसमें