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योग और साधना
कारण से यह पुस्तक मेरे द्वारा लिखी जा रही है ।
मई सन १३८१ के शुरू के दिनों में मैं स्वयं इसी प्रकार की मिली-जुली सी साधना के अन्दर तीन दिनों के लिये रहा था। गिनती के उन तीन दिनों में मेरे मन पर, मेरे शरीर पर तथा मस्तिष्क पर क्या-क्या गुजरी उन सबको शब्दों का प्रयोग करके आपके सामने रखने की यहां मैं कोशिश कर रहा हूँ। तथा परमात्मा की कृपा से मैं सोचता है कि उन दिनों की साधना का वर्णन करने में मैं येन केन प्रकारेण समर्थ हो ही जाऊंगा यदि फिर भी कोई कमी रह जाए तो मैं अपने आपको उस परम सत्ता का अपराधी समझ कर क्षमा प्रायीं हूँ।
उन दिनों जब भी घर पर सुबह ध्यान पर बैठता था तो अपनी दुकान को समय से खोलने को जल्दी की वजह से, मन में ध्यान करते समय वह दुकान बाधा बन कर मेरे समक्ष उपस्थित हो जाया करती थी। इस कारण से मेरे मन में हमेशा यह आकाँक्षा बनी ही रहती थी कि मैं लगातार काफी समय तक बिना विघ्न बाधा के ध्यान में ही बैठा रहूँ। इसी आकाँक्षा की पूर्ति के लिये जब मैंने अपने मन में विचार किया तो यह पाया कि घर पर तो वह क्रिया क्रियान्वित होना असम्भव नहीं तो मुश्किल तो है ही। इसलिये इसकी पूर्ति के लिए मैंने अपने विचार में यह तय किया कि किसी इस प्रकार के स्थान पर साधना में बैठना उचित होगा जहां पर एकांत तो हो ही तथा वहां किसी अन्य की दखलन्दाजी भी नहीं हो, जैसे कि मैं वहां क्या कर रहा हूँ या मैं वह सब क्यों कर रहा हूँ। इन बातों को तय करते हुए मैंने अपने भीतर के विचारों में कुछ शंकाओं को भी उपजते हुए पाया जिनमें दो मुख्य थी, प्रथम यह कि साधना के दौरान यदि कोई अशरीरी आत्मा आ गई तो उससे बचाव का क्या रास्ता उस समय मुझे अपनाना होगा ? तथा द्वितीय यह कि यदि स्वयं मेरी ही कुण्डीलनी जागृत हो गई तो अकेले में मुझे वहां कौन संभालेगा?
अपने मन की इन शंकाओं को शान्त करने के लिये जव अपने अनुभव की दृष्टि मैंने अपने भूतकाल की जानकारी पर दौड़ाई तो मुझे असफलता ही हाथ लगी, लेकिन एक दोहा जिसने मेरे अशांत मन को संयमित कर दिया याद आ
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