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योग और साधना
दिया हो, उस तीक्ष्णता को कहने के लिए मुझे भाषा में शब्द ढूढने से भी नहीं मिल रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि उसमें सुन्नाहट भी थी, जलन भी थी, भारीपन . भी था अथवा इन तीनों का मिला जुला वह रूप था लेकिन जैसे भूख सहन हो रही थी उसी प्रकार से परमात्मा ने और सभी परेशानियों को सहने की भी क्षमता दे ही रखी थी। रात वाली घटना से मन में जहाँ कौतुहल था वहीं मन में भने ही थोड़ा सा ही सही अनुभव होने की वजह से उत्साह भी था तीसरा दिन शारीरिक दृष्टि से बड़ा कठिन चल रहा था लेकिन फिर भी इन अनन्य प्रकार की कठिनाईयों के बाबजूद मैंने अपने मन में अपनी साधना के अन्तिम दिन निर्जला रहने का संकल्प कर लिया। इसके पीछे जो कारण था वह यही था कि मैं जितना अपने आप को इन परिस्थितियों में परखा सकू और परखा लू; इसलिए अब तक जो मैं आहार के नाम पर छाछ और पानी का सेवन कर रहा था, मेरे अब इस निर्जला के संकल्प लेने के कारण अब ये दोनों ही बन्द हो गये थे। वैसे तो मई का महीना था लेकिन एक दो दिन पहले बरसात हो जाने के कारण वातावरण में इतनी अधिक खुश्की नहीं थी, जितनी कि आमतौर पर मई के महिने में हो जाया करती है लेकिन मेरा शरीर पिछले दो दिनों से पहले ही अभाव ग्रस्त था इसलिए आज जब मैं इस बात को सोचता हूँ तो मुझे आश्चर्य होता है कि उस समय मेरे शरीर की इन्द्रियों ने मेरे मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव क्यों नहीं डाला अथवा इनके विपरीत मुझमें या मेरी इच्छा में इतनी दृढ़ता कहाँ से प्राप्त हुई। खैर जो हो प्रातः नौ बजे के करीब बबुआ ने छाछ से भरा जग मेरे सामने रख दिया । लेकिन मैं अपने कार्यक्रम में लगा रहा। और यह भी सोचता रहा था कि यह और भी अच्छा हुआ कि बबुआ को तो मेरे निर्जला रहने का पता नहीं है। अब मेरे सामने ताजा छाछ भी आ गयी थी जिसके कारण परीक्षा अब और भी कठिन हो गई थी। इस तरह से अब मेरी अब इच्छा शक्ति की असली परीक्षा की घड़ी आ गई थी । यही समय तो मेरा इन्द्रियों पर काबू पाने का समय था ।
यदि हमें कैद में डाल दिया जाये और खाना नहीं दिया जाये तब हम उस अवस्था को उपवास थोड़े ही कहेंगे, उपवास तो हम उसे ही कहते हैं जिसमें पहले हम मन में संकल्प करते हैं और बाद में अपने मन पर संयम करके उसे निभाते हैं। पहली अवस्थ में हम कैद से छूटते ही खाने पर टूट पड़ते है, जबकि दूसरी अवस्था में समय हो जाने के पश्चात भी इन्तजार करते हैं तथा पहले
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